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पागलपन के दौर में बफ़ेट की समझदारी: 1995-1999 के लेटर से सीखें निवेश के सबक

जब डॉट-कॉम बबल सिर चढ़कर बोल रहा था, तब बफ़ेट सिखा रहे थेकभी-कभी कुछ न करना ही सबसे अच्छा निवेश होता है

बफ़ेट और डॉट-कॉम बुलबुले के दौर से निवेश के 7 सबकAI-generated image

कुछ निवेश सलाह ऐसी होती है जो सुनने में बहुत अच्छी लगती है—लेकिन जब आप उसे अपनाने जाते हैं तो वो धुंधली हो जाती है.

“बेहतरीन बिज़नस ख़रीदो.”
“ज़्यादा मत चुकाओ.”
“लंबी अवधि में सोचो.”

सही बातें हैं, लेकिन जब बाज़ार गरम हो, चारों तरफ़ शोर हो और आपका ब्रोकर लगातार कॉल कर रहा हो, तब क्या करें? यही वजह है कि मैं बार-बार बफ़ेट के 90 के दशक के आख़िरी लेटर पढ़ता हूं. उस दौर में दुनिया डॉट-कॉम स्टॉक्स की दीवानी थी. कॉलेज के लड़के करोड़पति बन रहे थे. लेकिन बफ़ेट? वो बुनियादी चीज़ों पर टिका रहा.

उसने सिर्फ़ पुरानी बातें नहीं दोहराईं, बल्कि उन्हें समझाया—उनका मतलब क्या है, क्यों मायने रखती हैं, और कब बेअसर हो जाती हैं. रिटेल बिज़नेस की सख़्त हक़ीक़त से लेकर बायबैक की गड़बड़ियों तक, 1995 से 1999 के ये लेटर सिखाते हैं कि तेज़ी के पागलपन में भी कैसे होश में रहा जाए.

आइए, इस सीरीज़ के ज़रिए साल-दर-साल उनके लिखे पत्रों के ज़रिए उनके विचारों को बारीक़ी से समझते हैं.

रिटेल के जाल
कॉलेज के दिनों में एक बुकस्टोर चेन थी जिसे सब पसंद करते थे. बीन्सबैग, फ़्री कॉफ़ी, कूल माहौल—सब कुछ था. फिर एक दिन सब ख़त्म हो गया. कुछ ही साल में वो बंद हो गई.

बफ़ेट के 1995 के लेटर में वो लिखते हैं—“रिटेल एक मुश्किल बिज़नस है.” असल में, ये क्रूर है.

यहां कोई स्थायित्व नहीं. जैसे ही आप कुछ अच्छा करते हैं, आपके प्रतिद्वंद्वी उसे कॉपी कर लेते हैं. ग्राहक तुरंत सस्ता या नया ऑप्शन खोज लेते हैं. रिटेल में ‘आराम करना’ मतलब है—मौत को बुलावा देना.

कब रुके रहना ज़रूरी होता है
1996 के लेटर में बफ़ेट कहते हैं: “हम ऐसे बिज़नस को पसंद करते हैं जिनमें बड़े बदलाव की संभावना कम हो.”

डिसरप्शन के इस दौर में, बफ़ेट स्थिरता की बात करते हैं.

वो तुलना करते हैं—अपने टॉप परफ़ॉर्मिंग स्टॉक को सिर्फ़ इसलिए बेच देना कि वह पोर्टफ़ोलियो में ज़्यादा हिस्सा ले रहा है, ऐसा है जैसे माइकल जॉर्डन को टीम से बाहर कर देना क्योंकि वो ज़्यादा स्कोर करता है.

पर सबसे बेहतरीन कंपनियां भी ग़लतियां करती हैं. कोका-कोला ने एक बार झींगा पालन शुरू किया, जिलेट ने ऑयल में हाथ आज़माया. महान कंपनियां कभी कभी बोर हो जाती हैं. बफ़ेट के लिए असली दुश्मन प्रतिस्पर्धा नहीं, भटकाव है.

इंडेक्स फंड और आम निवेशक की समझ
1996 के लेटर में बफ़ेट ने लिखा कि ज़्यादातर लोगों को बस इंडेक्स फ़ंड में निवेश करना चाहिए.

बाज़ार को हराने के बजाय, उन फ़ंड मैनेजरों को हराओ जो ख़ुद असफल हो रहे हैं.

और अगर आप एक्टिव इन्वेस्टिंग करना भी चाहते हैं, तो दो स्किल्स चाहिए—बिज़नेस का मूल्यांकन और इंतज़ार करने की क्षमता.

सबसे अहम सलाह: “अगर आप किसी स्टॉक को 10 साल तक रखने को तैयार नहीं हैं, तो उसे 10 मिनट के लिए भी मत ख़रीदिए.”

ये भी पढ़ें: कुछ न करके जीतना

बतख़ जो सोचती है वो उड़ रही है
1997 के लेटर में बफ़ेट ने बुल मार्केट के नकली हीरोज़ को चेताया—

“तेज़ी को अपनी अक्ल मत समझो.”

वो कहते हैं, एक बतख़ बारिश के बाद ऊपर तैरती है और सोचती है कि वो उड़ रही है. जबकि सच्चाई है—सभी बतख़ें तैर रही हैं.

बढ़ते बाज़ार में सबकी चांदी होती है. पर जो वाक़ई समझदार हैं, वो जानते हैं कि कब और क्यों वो जीत रहे हैं—और क्या करना है जब हवाएं उल्टी चलने लगें.

M&A के भ्रम और अकाउंटिंग की जादूगरी
1997 और 1998 के लेटर में बफ़ेट ने M&A डील्स की आलोचना की.

अगर आप किसी कंपनी को प्रीमियम देकर ख़रीद रहे हैं, तो या तो आपके पास ओवरवैल्यूड स्टॉक हो, या फिर कोई वाक़ई सिंर्जिस्टिक प्लान. ज़्यादातर के पास इनमें से कुछ नहीं होता—सिर्फ़ चालाक अकाउंटेंट होते हैं.

1998 में उन्होंने "रिस्ट्रक्चरिंग चार्जेस" के बारे में लिखा—जिसका मतलब होता है, सालों की ग़लतियों को एक बुरे क्वार्टर में समेट दो और आगे के नंबर अच्छे दिखाओ.

शेयरधारकों को धोखा दिया जाता है.

कभी-कभी, अकाउंटिंग बिज़नेस की भाषा नहीं, बल्कि एक भ्रम का खेल बन जाती है.

बीमा बिज़नस का शांत जादू
बफ़ेट को बीमा का बिज़नेस पसंद है—प्रीमियम के लिए नहीं, बल्कि फ़्लोट के लिए.

ये वो पैसा होता है जो आज मिलता है लेकिन भविष्य में क्लेम के लिए देना होता है.

इस बीच, इसे इन्वेस्ट किया जा सकता है. लेकिन फ़्लोट तभी मूल्य बनाता है जब:

आप ढेर सारा फ़्लोट बना सकें
उसे बनाने की लागत उधारी की लागत से कम हो

ज़्यादातर बीमा कंपनियां दूसरे पॉइंट पर गिरती हैं. लॉस कॉस्ट अनुमानित होती है, और ग़लत मान्यताएं आगे चलकर बड़ा झटका देती हैं.

बफ़ेट ज़ोर देते हैं—अगर अंडरराइटिंग में अनुशासन हो और फ्लोट सस्ता या फ्री हो, तो बीमा कंपनी सिर्फ़ जोखिम प्रबंधक नहीं रहती—वो एक पूंजी आवंटक बन जाती है. और यहीं से असली कम्पाउंडिंग शुरू होती है.

बायबैक—कब सही और कब ग़लत

1999 तक, बायबैक हर जगह था.

लेकिन बफ़ेट खुश नहीं थे.

वो कहते हैं—बायबैक तभी समझदारी है जब कंपनी के पास फंड ज़्यादा हो और उसका स्टॉक आंतरिक मूल्य से सस्ता हो.

सिर्फ़ आत्मविश्वास दिखाने या स्टॉक ऑप्शन्स के डाइल्यूशन को छुपाने के लिए नहीं.

“अगर आप एक डॉलर के नोट को $1.10 में ख़रीद रहे हैं, तो ये अच्छे बिज़नस की निशानी नहीं है.”

कई CEO बायबैक इसलिए करते हैं ताकि वो अच्छे दिखें. लेकिन इसका ख़र्च उठाते हैं—हम जैसे लॉन्ग टर्म निवेशक.

निष्कर्ष: तेज़ बतख़ नहीं, समझदार बतख़ बनिए
1995 से 1999 के बफ़ेट लेटर हमें एक अहम बात सिखाते हैं—तेज़ी के दौर में भी सोच-समझकर चलना ज़रूरी है.

जब दुनिया दौड़ रही हो, तब रुककर सोचना चाहिए.

शोर में शामिल होने से पहले सवाल पूछना चाहिए.

और सबसे अहम—ख़ुद को धोखा नहीं देना चाहिए.

तेज़ी में उड़ती बतख़ मत बनिए. उस बतख़ बनिए, जो जानती है कि तालाब कितना गहरा है.

ये भी पढ़ें: बफ़ेट, बीटा और बड़ा दांव लगाने की बात (1993 लेटर)

ये लेख पहली बार अप्रैल 14, 2025 को पब्लिश हुआ.

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