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जब CEO आपके पैसे से ‘इंटीरियर डिज़ाइन’ खेलने लगते हैं

बफ़ेट के 1994 पत्र से सबक: इन्ट्रिंसिक वैल्यू, अधिग्रहण की ग़लतियां और कर्मचारियों की सैलरी स्ट्रक्चर क्यों बदलने की ज़रूरत है

वॉरेन बफ़ेट का 1994 पत्र: CEO पूंजी आवंटन में क्यों फेल हो जाते हैंAI-generated image

सालों में मैंने CEOs में एक अजीब आदत देखी है. उनसे उनके कारोबार के बारे में पूछिए तो जवाब सावधानीभरा और नपा-तुला होता है. लेकिन जैसे ही अधिग्रहण की बात होती है, उनकी आंखें चमक उठती हैं. डेटा, चार्ट, 'सिनर्जी' के कैलकुलेशन, कल्चर मैच की बात और इनवेस्टमेंट बैंकर फ़ोन पर तैयार. उन्हें कैपिटल एलोकेशन (पूंजी आवंटन) की समझ नहीं है ऐसा नहीं है, बस कुछ ख़रीदने का जोश, शेयर बायबैक या कैश संभालने से कहीं ज़्यादा रोमांचक लगता है.

बफ़ेट ने 1994 के अपने पत्र में इस मानसिकता की पोल खोल दी थी. उन्होंने पूंजी आवंटन या इन्ट्रिंसिक वैल्यू की सिर्फ़ थ्योरी नहीं दी, बल्कि बताया कि अधिग्रहण ज़्यादातर मामलों में कैसे वैल्यू नष्ट करते हैं, कैसे सैलरी योजनाएं इंसेंटिव ग़लत दिशा में सेट करती हैं, और क्यों निवेश सरल हो सकता है लेकिन उसमें स्पष्टता ज़रूरी है.

ये स्टोरी बफ़ेट के पत्रों पर आधारित सीरीज़ का हिस्सा है. और अगर आपको इससे एक चीज़ याद रखनी है तो बस ये: कैपिटल एलोकेशन कोई कला नहीं, अनुशासन है. और ज़्यादातर CEO कलाकार हैं, अनुशासित नहीं.

सच्ची वैल्यू का पैमाना
बफ़ेट इन्ट्रिंसिक वैल्यू और बुक वैल्यू के फ़र्क़ को बहुत स्पष्टता से समझाते हैं. बुक वैल्यू ये बताती है कि बिज़नस में कितना लगाया गया है, जबकि इन्ट्रिंसिक वैल्यू बताती है कि उससे कितना निकाला जा सकता है. उनके शब्दों में: इन्ट्रिंसिक वैल्यू उस बिज़नस से उसकी बाक़ी की ज़िंदगी में निकलने वाली डिस्काउंटेड कैश वैल्यू है. बस.

मगर ये वो नंबर नहीं जो स्क्रीन से मिल जाए या एक्सेल पर बना लिया जाए. ये नंबर बदलता है—इंटरेस्ट रेट, परफ़ॉर्मेंस, आपकी धारणाओं के साथ. ये सब्जेक्टिव है. लेकिन सबसे ज़रूरी भी यही है.

इस बात को समझाने के लिए बफ़ेट एक बहुत प्यारी मिसाल देते हैं: कॉलेज एजुकेशन. फ़ीस, गंवाई हुई इंकम, रात की मैगी—ये सभी कुछ आपकी “बुक वैल्यू.” है लेकिन असली बात ये है कि आपने इससे क्या पाया? अगर पूरी ज़िंदगी की कमाई, जो ग्रैजुएशन के दिन से डिस्काउंट करके निकाली गई हो, आपकी लागत से ज़्यादा है, तो आपने वैल्यू बनाई. वरना, चार साल की किताबें और कॉफ़ी व्यर्थ गई.

कंपनीज़ पर भी यही नज़र डालिए. पीछे देखने की बजाय आगे देखिए.

'साम्राज्य खड़ा करने वालों' की समस्या
इन्ट्रिंसिक वैल्यू समझना सिर्फ़ निवेशकों के लिए नहीं—CEOs के लिए भी बेहद ज़रूरी है. ख़ासकर जब वे कैपिटल एलोकेट कर रहे हों.

बहुत सारे CEO अधिग्रहण को गेमिंग कैटलॉग मिलने जितनी उत्तेजना से देखते हैं. "स्ट्रैटेजिक ग्रोथ" का नाम आते ही बोर्ड मीटिंग्स, बैंकर्स और ग्रैंड प्लान्स का सिलसिला शुरू हो जाता है. बफ़ेट सीधा कहते हैं—कुछ CEO इतने डील करने वाले स्वभाव के होते हैं कि उन्हें सिर्फ़ एक मौक़ा चाहिए होता है.

समस्या ये है कि ज़्यादातर अधिग्रहण में फ़ायदा सबको होता है सिवाय शेयरधारकों के. बेचने वालों को बोनस, बैंकर्स की पार्टी, और CEO को बड़ा टाइटल. मगर जिनका पैसा है—शेयरहोल्डर्स—अक्सर डाइल्यूट हो जाते हैं—फ़ाइनेंशियली भी और बौद्धिक रूप से भी.

क्यों? क्योंकि मैनेजर्स ये देखते हैं कि EPS बढ़ा या नहीं, ना कि इन्ट्रिंसिक वैल्यू बढ़ी या नहीं.

कैपिटी एलोकेशन CEO का सबसे अहम काम है. और शायद वही काम है जिसके लिए उन्हें कभी ट्रेंड नहीं किया जाता.

कंपनसेशन का धोखा
बफ़ेट का मानना है—इनाम प्रदर्शन के अनुसार मिलने चाहिए. ऊपर के लिए ही नहीं, नीचे के लिए भी.

मगर ज़्यादातर कंपनियां ऐसा नहीं करतीं. 10 साल की स्टॉक ऑप्शंस, रिटेन्ड अर्निंग्स को एडजस्ट नहीं करना, कम डिविडेंड—मैनेजर कुछ किए बिना भी अमीर बन जाते हैं. जबकि बफ़ेट चाहते हैं कि मैनेजर मालिक जैसा व्यवहार करें—असली मालिक जैसा. जहां उतार-चढ़ाव दोनों में उनका दांव लगा हो. जहां पूंजी की असली लागत का हिसाब हो और इनाम तभी मिले जब नतीजे हों.

अलाइन्मेंट कोई कॉर्पोरेट बज़वर्ड नहीं है. वो असल में पूरी कहानी है.

आसान मतलब कमज़ोर नहीं
निवेशक अक्सर सोचते हैं कि जो चीज़ जटिल हो वही बेहतर है. वे हाई-बीटा, लो-यील्ड, मल्टी-फ़ैक्टर स्टॉक्स में उलझ जाते हैं जैसे CFA ओलंपिक की तैयारी कर रहे हों. मगर बफ़ेट याद दिलाते हैं—इस खेल में स्कोर सही होने पर मिलता है, मुश्किल होने पर नहीं.

अगर आप एक स्थिर और सच्चे आइडिया को सही दाम पर समझते हैं और दांव लगाते हैं—आप जीत जाते हैं. कॉम्प्लेक्सिटी के लिए कोई एक्स्ट्रा पॉइंट नहीं मिलते. डिस्ट्रैक्शन ज़रूर मिलता है.

इसलिए बफ़ेट और मंगर टाइमिंग नहीं, प्राइसिंग पर ध्यान देते हैं. उन्हें ऐसे बिज़नस चाहिए जिनका भविष्य साफ़ हो, जिनके मैनेजर ईमानदार हों, और जिनकी क़ीमत समझदारी से ख़रीदी जा सके. वे चमचमाते नए नामों के पीछे नहीं भागते—बल्कि जो पहले से पास है, उसमें और जोड़ते हैं.

क्योंकि जब कोई चीज़ सच में रखने लायक़ हो, तो उसे और रखना ही सबसे अच्छा स्ट्रैटेजी होती है.

आख़िरी बात
बफ़ेट का 1994 पत्र बताता है कि कैपिटल एलोकेशन सिर्फ़ CEO की एक ज़िम्मेदारी नहीं है—वो उसकी सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी है. बची हुई कमाई (रिटेन्ड अर्निंग्स) कहां लगे, कर्मचारियों को कैसे इंसेंटिव दें—ये सब इस बात पर निर्भर करता है कि आप ‘वैल्यू’ को कितने साफ़ तरीक़े से समझते हैं.

लेकिन ज़्यादातर मैनेजर EPS के दिखावे, चमक-दमक वाले अधिग्रहण और दोयम दर्जे के इंसेंटिव पैकेज में फंसे रहते हैं.

सच बहुत सीधा है: सबसे अच्छे कैपिटल एलोकेटर (पूंजी आवंटक) वे हैं जो ये नहीं भूलते कि उनका लक्ष्य हेडलाइन नहीं, प्रति-शेयर वैल्यू बढ़ाना है. जैसा बफ़ेट दिखाते हैं—मुश्किल बात जटिलता नहीं है. असली चुनौती है—सादगी में अनुशासन रखना.

ये भी पढ़ें: वॉरेन बफ़े का 1991 का पत्र: कर्ज़, वैल्यूएशन और केंज़ की समझ

ये लेख पहली बार अप्रैल 11, 2025 को पब्लिश हुआ.

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