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वॉरेन बफ़े का 1988 का ख़त: अकाउंटिंग के झोल और CEO की जवाबदेही

बफ़े के 1988 के पत्र की सीखजिसमें अकाउंटिंग की चालबाज़ियां, रिटेल बिज़नस के रहस्य और CEO की सच्ची जवाबदेही का पर्दाफ़ाश है

वॉरेन बफ़े का 1988 का ख़त: अकाउंटिंग के झोल और CEO की जवाबदेही पर करारा प्रहारAI-generated image

अगर आपको लगता है कि अकाउंटिंग ही किसी बिज़नस की पूरी कहानी बता देती है, तो आप चौंक सकते हैं. और अगर आपको लगता है कि सीनियर मैनेजमेंट हमेशा अपने फ़ैसलों के लिए जवाबदेह होता है, तो एक बार फिर सोचिए. बर्कशायर हैथवे के शेयरधारकों को 1988 में लिखे अपने पत्र में, वॉरेन बफ़े ने कुछ ऐसी सच्चाइयों से पर्दा उठाया जिन्हें ज़्यादातर CEO छुपाना पसंद करेंगे.

ये कहानी, बफ़े के पत्रों पर आधारित हमारी सीरीज़ का हिस्सा है, जो दिखाती है कैसे बफ़े कॉरपोरेट दुनिया के मुखौटे हटा कर सच्चाइयों की तह तक पहुंचते हैं. इसमें वो अकाउंटिंग स्टैंडर्ड्स की सीमाएं, टॉप एक्ज़ीक्यूटिव्स की अनकही ‘इम्युनिटी’ और एक बेहतरीन रिटेल बिज़नस की असली ताक़त को उजागर करते हैं. वो रिस्क आर्बिट्राज के प्रति अपनी सतर्कता के आइडिया भी साझा करते हैं—एक ऐसी रणनीति जिसमें ज़्यादातर लोग अपने जीतने के मौक़े बढ़ा-चढ़ाकर आंकते हैं. आइए, ये सबक़ क़रीब से समझें:

झूठ बोलते हैं नंबर
बात जब अकाउंटिंग की आती है, तो बफ़े का रुख साफ़ है: GAAP (Generally Accepted Accounting Principles) पर आंख बंद करके भरोसा मत करो. ये नियम पारदर्शिता लाने के लिए बनाए गए थे, लेकिन अक्सर ये उस उद्देश्य को पूरा नहीं कर पाते. GAAP नंबर भले ही सटीकता का भ्रम पैदा करते हैं, लेकिन वे हमेशा आर्थिक सच्चाई नहीं दर्शाते. और कई बार तो इन्हें जानबूझकर ग़लत तरीक़े से पेश किया जाता है.

सोचिए, आप अपने बॉस को रिपोर्ट दे रहे हैं. क्या आप बस कुछ नंबर दे देंगे और उम्मीद करेंगे कि वो सब समझ जाए? बिल्कुल नहीं. आप संदर्भ, बारीक़ियां और असली मतलब समझाएंगे. लेकिन कई CEO ऐसा नहीं करते, बल्कि GAAP की आड़ लेकर पूरी तस्वीर छुपा लेते हैं.

सच्चाई ये है कि सभी 'अर्निंग' बराबर नहीं होतीं. कुछ मैनेजमेंट GAAP की रचनात्मक व्याख्या करके असलियत से ज़्यादा स्मूद ट्रेंड दिखाने की कोशिश करते हैं. कभी-कभी वे ‘बिग बाथ’ लेते हैं—यानी एक ही तिमाही में जानबूझकर बुरा नतीजा दिखाते हैं ताकि भविष्य में दिखने वाले नतीजे बेहतर लगें. या फिर कमाई को खींच-तान कर पहले ही दिखा देते हैं ताकि बाज़ार की उम्मीदों पर खरे उतर सकें.

और मामला यहीं नहीं रुकता: बेईमान मैनेजर जानते हैं कि निवेशक रिपोर्ट किए गए आंकड़ों को सच्चाई मान लेते हैं, तो वे इसी भोलेपन का फ़ायदा उठाते हैं. बफ़े के मुताबिक अकाउंटिंग बस एक शुरुआती ड्राफ़्ट है, अंतिम फ़ैसला नहीं. हमेशा सतह के नीचे देखें.

अच्छा रिटेल बिज़नस क्या बनाता है?
बफ़े के मुताबिक़, एक शानदार रिटेल बिज़नस की चाभी बहुत सीधी है: सस्ते बेचो और सच्चाई बोलो. न कोई हाइप, न कोई चालाकी—सिर्फ़ बुनियादी सिद्धांतों की ईमानदारी से मानो.

बफ़े हमेशा ऐसे बिज़नस की तारीफ़ करते हैं जो इन मूल्यों को अपनाते हैं. इसका सबसे अच्छा उदाहरण है नेब्रास्का फ़र्नीचर मार्ट (NFM), जिसे चलाती थीं रिटेल की दिग्गज रोज़ ब्लमकिन, जिन्हें सभी प्यार से “Mrs B” कहते थे.

जब बफ़े ने NFM ख़रीदा, तो वो सिर्फ़ फ़र्नीचर की दुकान नहीं खरीद रहे थे. वो Mrs B की बेमिसाल रिटेलिंग फ़िलॉसफ़ी में निवेश कर रहे थे. Mrs B का विश्वास था: सबसे सस्ते दाम दो, कभी धोखा मत दो. उनके ख़रीदने के कौशल, ख़र्चों पर पैनी नज़र और ग्राहकों के प्रति सेवा की भावना ने NFM को एक अजेय ताक़त बना दिया.

बफ़े बताते हैं कि एक सफल रिटेल बिज़नस की छह मज़बूत नींवें होती हैं—और ये सभी Mrs B के सिद्धांतों को दिखाती हैं:

  • सस्ते बेचो और सच बोलो: Mrs B कभी दिखावटी डिस्काउंट के लिए दाम नहीं बढ़ाती थीं. शुरू से ही दाम कम होते और ग्राहक जानते थे कि उन्हें अच्छा सौदा मिल रहा है.
  • एक ही दुकान में बड़ी वैरायटी: ग्राहक को ऐसा लगे कि वो खज़ाने के भंडार में घुसा है. NFM की बड़ी जगह और अंतहीन विकल्पों ने इसे एक डेस्टिनेशन बना दिया.
  • टॉप मैनेजमेंट की रोज़ाना निगरानी: अगर बॉस को परवाह नहीं है, तो किसी और को क्यों होगी? Mrs B ख़ुद 90 की उम्र में भी फ़्लोर पर काम करती थीं.
  • तेज़ टर्नओवर: जो स्टॉक रुका, वो मरा. NFM ने स्टॉक को तेज़ी से खपाने की नीति अपनाई.
  • चालाकी से ख़रीदारी: Mrs B बेहतरीन सौदेबाज़ थीं—सप्लायर से कड़ाई से सौदे करतीं और वो बचत ग्राहक को देतीं.
  • बेहद कम ख़र्चे: Mrs B की सादगी और कम ख़र्च ने कंपनी को कम ख़र्चीला और मुनाफ़े वाला बनाए रखा.

बफ़े ने Mrs B की कारोबारी सूझबूझ को सिर्फ़ सराहा नहीं, बल्कि पूजा के क़ाबिल समझा. उनकी सच्चाई, मूल्य और कम ख़र्च में ज़्यादा काम करने पर टिकी सोच ने NFM को एक मिसाल बना दिया.

इंश्योरेंस में कॉम्बाइंड रेश्यो को समझना
इंश्योरेंस बिज़नस की बुनियाद है उसका कंबाइंड रेशियो — यानी दावा और ख़र्च बनाम प्रीमियम का अनुपात. अगर ये 100 से कम है, तो अंडर-राइटिंग में मुनाफ़ा है. 100 से ऊपर मतलब घाटा.

पर बारीक़ी यहीं है: अगर रेशियो 107-111 भी हो, और इंश्योरेंस कंपनी प्रीमियम से मिला फंड (float) निवेश करके अच्छा मुनाफ़ा कमाए, तो भी वो फ़ायदे में रह सकती है.

बात सिर्फ़ अंडरराइटिंग की नहीं, फ़्लोट के ज़रिए निवेश मुनाफ़े की भी है. यही कारण है कि बफ़े की इंश्योरेंस कंपनियां सिर्फ़ रेशियो नहीं देखतीं, बल्कि फंड का ज़रूरत के मुताबिक़ इस्तेमाल करना जानती हैं.

जब जवाबदेही ग़ायब हो जाए
कॉरपोरेट दुनिया में एक टाइपिस्ट को नौकरी से निकालना CEO से कहीं आसान है. अजीब बात है, लेकिन सच है.

अगर एक टाइपिस्ट 80 शब्द प्रति मिनट नहीं टाइप कर सकता, तो वो निकाला जाएगा. सेल्सपर्सन टारगेट नहीं ला सका, तो वो जाएगा. लेकिन CEO? वो तीर चलाता है और फिर उसके चारों ओर निशाना खींच देता है—और कहता है, “देखो, मैं जीत गया!”

समस्या ये है कि बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर ख़ुद को कभी ज़िम्मेदार नहीं मानते. अगर उन्होंने किसी ख़राब CEO को हायर किया है, तो उस ग़लती को मानने के बजाय सालों तक उसे टिकाए रखते हैं. और जब कंपनी बिक जाती है, तो वही बोर्ड मेंबर आराम से फ़ायदे लेकर चंपत हो जाते हैं.

इसलिए सिर्फ़ इस आधार पर भरोसा मत करें कि कोई टॉप पर है, तो वो अच्छा काम कर रहा है. असली नेतृत्व का मतलब है जवाबदेही, न कि आरामदेही.

रिस्क आर्बिट्राज: अनिश्चितता पर सूझबूझ भरी शर्त
रिस्क आर्बिट्राज सुनने में भारी लगता है, लेकिन असल में ये सीधा है: आप किसी कॉरपोरेट डील के सफल होने पर दांव लगाते हैं—जैसे मर्जर या बायआउट. ये इस बात पर सट्टा नहीं है कि शेयर ऊपर जाएगा या नीचे. यह उस डील के पूरे होने पर भरोसे की बात है.

बफ़े इस रणनीति को लेकर बेहद सतर्क रहते हैं. वो अफ़वाहों पर दांव नहीं लगाते. जब तक कोई डील औपचारिक रूप से घोषित नहीं हो जाती, वो निवेश नहीं करते. ये एक सोचा-समझा क़दम होता है

जिसमें चार सवालों के जवाब वो पहले तलाशते हैं:

  • क्या ये डील होने की संभावना वाक़ई है?
  • पैसा कितने समय के लिए फंसेगा?
  • क्या बेहतर ऑफर आने की संभावना है?
  • अगर डील टूट गई तो क्या होगा?

रिस्क आर्बिट्राज दिल के कमज़ोर लोगों के लिए नहीं है. ये नपातुला जुआ है—लेकिन बफ़े की शैली में ये कसीनो का रूले नहीं, बल्कि शतरंज का खेल है.

आख़िरी बात: सादगी में समझदारी है
बफ़े के 1988 के पत्र में जो बात सबसे ज़्यादा उभर कर आती है, वो है—नकली चमक-दमक को हटाकर मूल सिद्धांतों पर टिके रहना. चाहे वो अकाउंटिंग के झोल हों, रिटेल की बुनियाद, इंश्योरेंस के मेट्रिक्स, बोर्ड की जवाबदेही हो या रिस्क आर्बिट्राज—बफ़े का संदेश एकदम साफ़ है: चीज़ों को जटिल मत बनाओ.

न निवेश में, न ज़िंदगी में. जब भी संदेह हो, सादगी से सोचो और सही सवाल पूछो.

ये भी पढ़ें: वॉरेन बफ़े का 1983 का लेटर: गुडविल, मोट और वैल्यूएशन की समझ

ये लेख पहली बार अप्रैल 03, 2025 को पब्लिश हुआ.

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