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वॉरेन बफ़े के पत्रों में छिपे ज्ञान को उजागर करने वाली हमारी सीरीज़ के तहत, अब हम बर्कशायर हैथवे के शेयरधारकों को लिखे उनके 1984 के पत्र पर नज़र डालते हैं. अगर आप कैपिटल एलोकेशन (पूंजी आवंटन), रिस्क मैनेजमेंट और असली वैल्यू बनाने पर एक ब्लूप्रिंट तलाश रहे हैं, तो 1984 का पत्र ज़रूर पढ़ें.
चाहे शेयर बायबैक के ज़रिए वैल्यू (मूल्य) का पता लगाना हो, इंश्योरेंस के नुक़सान के अनुमानों की मुश्किलों से जूझना हो, बॉन्ड को ग़ैर-पारंपरिक बिज़नस के तौर पर देखना हो, या सोच-समझकर डिविडेंड (लाभांश) के फ़ैसले लेना हो, इस पत्र से बफ़े की समझ सोने जैसी खरी है. आइए उनके सबक़ को समझें और देखें कि कैसे ये आज भी मायने रखते हैं.
शेयर बायबैक: दिखावा नहीं, वैल्यू खड़ी करना है
शेयर बायबैक को अक्सर मिली-जुली प्रतिक्रिया मिलती हैं. कभी-कभी, उन्हें कॉर्पोरेट के आत्मविश्वास का संकेत माना है और कई बार, उन्हें शेयर की क़ीमतों को बढ़ाने के तरीक़े के रूप में खारिज कर दिया जाता है. हालांकि, बफ़े साफ़-साफ़ बताते हैं कि कब बायबैक असल में वैल्यू जोड़ता है.
जब कोई कंपनी अपने शेयरों को आंतरिक मूल्य (इंट्रिंसिक वैल्यू) से काफ़ी कम क़ीमत पर वापस ख़रीदती है, तो उसे असल में अपने पैसे की ज़्यादा क़ीमत मिलती है. इससे, मौजूदा शेयरधारकों को फ़ायदा होता है क्योंकि उनके पास कम शेयर होते हैं, जिसका मतलब है कि उनके बाक़ी शेयर ज़्यादा क़ीमती हो जाते हैं.
लेकिन एक और फ़ायदा है जिसके बारे में बफ़े बताते हैं और जो कम दिखाई देता है. बायबैक एक मज़बूत संकेत देता है कि मैनेजमेंट का ध्यान केवल साम्राज्य खड़ा के बजाय शेयरहोल्डर की वैल्थ पर है. जब शेयरहोल्डर देखते हैं कि मैनेजमेंट लगातार उनके बेहतर हितों के लिए काम करता है, तो वे भविष्य के रिटर्न के लिए अपनी उम्मीदें बढ़ा देते हैं. इस एक्शन और बयानबाज़ियों के बीच भरोसा पैदा होता है और यही भरोसा स्टॉक की क़ीमत को कंपनी की असली वैल्यू के मुताबिक़ रखता है.
दूसरी ओर, अगर मैनेजमेंट लगातार बायबैक को अनदेखा करता है जब स्टॉक अंडरवैल्यू (कम मूल्यांकन पर) होता है, तो इससे लगता है कि उनकी प्राथमिकताओं में शेयरधारकों के हित शामिल नहीं है. ये ऐसे स्टोर की तरह है जो छूट पर मिलने वाली चीज़ें नहीं ख़रीदता, भले ही इससे ज़्यादा फ़ायदा मिल सकता हो, जो शेयरहोल्डर की वैल्यू पर ध्यान देने की कमी दिखाता है.
इंश्योरेंस में सही होने का भ्रम
बीमा कंपनियों के सामने एक अनूठी चुनौती है: उनकी ज़्यादातर लागत, क्लेम या दावों से आती है, और इनमें से ज़्यादातर दावे तब तक नहीं किए गए होते. बफ़े ने इसे बिल्कुल सटीक तरीक़े से परिभाषित किया है: इंश्योरेंस की आमदनी एक मोटे तौ पर बने ड्राफ़्ट (मसौदे) से ज़्यादा कुछ नहीं है.
समस्या घाटे का अनुमान लगाने में है. बीमा कंपनियां अक्सर इसका अनुमान लगाती हैं कि उन्हें उन दावों पर कितना भुगतान करना होगा जिनकी रिपोर्ट अभी तक नहीं की गई है - जिसे इंडस्ट्री 'Incurred But Not Reported' (IBNR) यानि हुआ मगर रिपोर्ट नहीं किया गया घाटा कहती है. त्रुटियों (errors) को कम करने के लिए, वे रिज़र्व को एडजस्ट करने के लिए स्टेटेस्टिक्स की तकनीकों का इस्तेमाल करते हैं. लेकिन अच्छे से अच्छे अनुमान भी लक्ष्य से काफ़ी दूर हो सकते हैं.
कल्पना करें कि 2025 में ₹1 लाख के घाटे का अनुमान लगाया गया है, लेकिन 2030 में पता चलता है कि असल में इसकी लागत ₹20 लाख है. खातों में ये सुधार पांच साल देरी से आता है, जिससे प्रॉफ़िटेबिलिटी (लाभप्रदता) की तस्वीर लंबे अर्से के लिए पूरी तरह बिगड़ जाती है.
और जो सबसे डरावनी बात है वो ये कि बीमा कंपनियां अपनी असली फ़ाइनेंशियल स्थिति सालों तक छिपा सकती हैं. चूंकि पॉलिसी जारी करते समय कैश आता है और पेमेंट बहुत बाद में होता है, इसलिए दिवालिया कंपनियां भी लंबे समय तक फ़ाइनेंस के लिहाज़ से मज़बूत दिखाई दे सकती हैं. इससे चलती-फिरती लेकिन मरी हुई बीमा कंपनियां अस्तित्व में आती हैं जो सिर्फ़ अपना कारोबार बचाए रखने के लिए ज़्यादा से ज़्यादा कारोबार करने की कोशिश करती हैं, ये एक बड़े दांव की उम्मीद में जुआ खेलने जैसा है.
इसलिए, बीमा कंपनियों के सटीक फ़ाइनेंशियल स्टेटमेंट हमेशा शक़ की नज़र से देखें. गहराई से जांच करें और उनके नुक़सान के अनुमानों के पीछे की धारणाओं पर सवाल उठाएं.
WPPSS की कहानी: बिज़नस के तौर पर बांड
ये पत्र का मेरा पसंदीदा हिस्सा है, जहां बफ़ेट पारंपरिक सोच को उलट देते हैं. वो बॉन्ड को बिज़नस की तरह मानने का तर्क देता है और ये जितना संभव हो उतना व्यावहारिक है.
निवेशक अक्सर बॉन्ड को सरल फ़िक्स्ड इनकम (निश्चित आय) वाले तरीक़े के रूप में देखते हैं जो अनुमानित, हालांकि मामूली, रिटर्न देते हैं. लेकिन बॉन्ड के प्रति बफ़े का नज़रिया बहुत अलग है. वे बॉन्ड को पैसिव कैश फ़्लो पैदा करने वाले के रूप में नहीं बल्कि अनुमानित आय और पूंजी पर रिटर्न वाले बिज़नस के रूप में देखते हैं.
उदाहरण के लिए, वाशिंगटन पब्लिक पावर सप्लाई सिस्टम (WPPSS) बॉन्ड लें. बफ़ेट और मंगर ने ये बॉन्ड $139 मिलियन में ख़रीदे, जिससे टैक्स के बाद, सालाना $22.7 मिलियन की कमाई हुई. ये पूंजी पर 16.3 प्रतिशत का रिटर्न है. इसे परिप्रेक्ष्य में रखने के लिए, एक ऐसे बिज़नस को ख़रीदने की कल्पना करें जो अनलीवरेज्ड कैपिटल पर सालाना 16.3 प्रतिशत कमाता है. ऐसा बिज़नस ख़रीदना जो इतनी यील्ड (प्रतिफल) देता है कि उसके लिए प्रीमियम की ज़रूरत होगी. बफ़े के अंदाज़े के अनुसार इसकी लागत $250 से $300 मिलियन के बीच हो सकती है. लेकिन बर्कशायर ने सिर्फ़ 139 मिलियन डॉलर में बॉन्ड हासिल कर लिए.
हां, इसमें कुछ रिस्क शामिल था. इस बात की थोड़ी संभावना थी कि WPPSS एक या दो साल में बंद हो सकता है, जिससे बॉन्ड बेकार हो सकते हैं. साथ ही, इस बात की संभावना थी कि ब्याज भुगतान में काफ़ी समय तक रुकावट आ सकती है. लेकिन बफ़े ने इन रिस्क को कैपिटल पर बड़े रिटर्न के साथ सावधानी से तौला और तय किया कि संभावनाएं उनके पक्ष में हैं.
यही वो जगह है जहां बफ़े की सोच चमक उठती है. हमेशा रिस्क-से-मुनाफ़े के रेशियो का अंदाज़ा लगाना. जबकि WPPSS का संभावित नुक़सान पूरे निवेश को खोना था, ऐसा होने की संभावना कम थी, और रिटर्न इतना अच्छा था कि इसे छोड़ना मुश्किल था. बफ़ेट अंधाधुंध तरीक़े से यील्ड का पीछा नहीं कर रहे थे, वे बॉन्ड को ख़रीदने का फ़ैसला एक बिज़नस के तौर पर कर रहे थे.
डिविडेंड पॉलिसी: सावधानी से लिया गया रिटेंशन
जब डिविडेंड (लाभांश) की बात आती है, तो बफ़े का रुख़ सीधा है: "केवल तभी आय बनाए रखें जब आप उनके साथ शेयरधारकों द्वारा कहीं और निवेश करके पाए जा सकने वाली वैल्यू से ज़्यादा वैल्यू पैदा कर सकें."
आय दो कैटेगरी में आती है:
- प्रतिबंधित आय (Restricted earnings): ये बिज़नस में सिर्फ़ अपनी प्रतिस्पर्धी स्थिति बनाए रखने या मंहगाई से एडजस्ट की गई ऑपरेटिंग कॉस्ट को पूरा करने के लिए बंधे होते हैं. ऐसी आय को बनाए रखना असल में वैल्यू नहीं जोड़ता.
- अप्रतिबंधित आय (Unrestricted earnings): ये असली डील हैं - आय जिसे बिज़नस को रिस्क में डाले बिना या तो री-इन्वेस्ट (पुनर्निवेशित) किया जा सकता है या डिस्ट्रीब्यूट किया जा सकता है.
मैनेजमेंट को जो बड़ा सवाल पूछना चाहिए वो है: "क्या हम इन अप्रतिबंधित आय को इतनी ऊंची दर पर रीःइन्वेस्ट कर सकते हैं कि उन्हें बनाए रखना सही हो?" अगर हां, तो आगे बढ़ें और री-इन्वेस्ट करें. अगर नहीं, तो उन्हें डिविडेंड के तौर पर भुगतान करें.
हालांकि, कई मैनेजर बिज़नस बढ़ाने के प्लान या अपने कॉर्पोरेट साम्राज्य को मज़बूत करने के लिए बड़ा कैश जमा करते रहते हैं. ईमानदारी से ये पता लगाने के बजाय कि क्या प्रति ₹1 पर अर्निंग रिटेन (प्रतिधारित आय) कम से कम ₹1 की मार्केट वैल्यू पैदा करेगी, वे इसे जमा करते रहते हैं. ये मानसिकता अक्सर कॉर्पोरेट स्ट्रक्चर को फूला हुआ और रिटेन किए गए कैपिटल पर कम रिटर्न की ओर ले जाता है.
बफ़े उन मैनेजरों के ख़िलाफ़ भी चेतावनी देते हैं जो अपने मेन बिज़नस के शानदार रिटर्न का इस्तेमाल दूसरे ख़राब एसेट एलोकेशन को सही ठहराने के लिए करते हैं. एक बढ़िया कोर बिज़नस ख़राब अधिग्रहण या ख़राब प्रदर्शन करने वाली सहायक कंपनियों को छुपा सकता है. शेयरधारकों के लिए बहुत बेहतर होगा अगर मैनेजमेंट ऊंचे-रिटर्न वाले बिज़नस पर ही टिका रहे और एक्स्ट्रा कैश डिस्ट्रीब्यूट करे या शेयर बायबैक के लिए इसका इस्तेमाल करे.
कैपिटल एलोकेशन के लिए बफ़े का खाका
बफ़े का 1984 का पत्र हमें एक बड़ा सबक़ सिखाता है: निवेश की सफलता ट्रेंड फ़ॉलो करने के बारे में नहीं है, बल्कि तर्कसंगत, सोचे-समझे फ़ैसले लेने के बारे में है जो समय के साथ वैल्यू बढ़ाते हैं. चाहे आप बायबैक का वैल्युएशन कर रहे हों, इंश्योरेंस रिस्क मैनेज कर रहे हों, बॉन्ड ख़रीद रहे हों या आय को बनाए रख रहे हों, सिद्धांत एक ही रहता है - एक बिज़नस के मालिक की तरह सोचें, न कि एक स्टॉक ट्रेडर की तरह.
निवेश करना कोई रॉकेट साइंस नहीं. ये धैर्य में लिपटा हुआ सामान्य ज्ञान है. बफ़े का खाका तर्कसंगत, अनुशासित रहने और हमेशा स्पष्ट से परे देखने की याद दिलाता है.
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ये लेख पहली बार मार्च 31, 2025 को पब्लिश हुआ.