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बाज़ार की गिरावट के बीच, विनाश की आवाज़ से ज़्यादा आधिकारिक कुछ नहीं लगता. जैसे-जैसे इक्विटी की वैल्यू गिरती है, तमाम निराशावादी अपने चार्ट, इकोनॉमिक इंडीकेटरों और क़रीब-क़रीब रहस्यमयी सम्मोहन वाली बातें करते हैं. उनके असरदार तर्क साफ़ तौर से बताते हैं कि क्यों सब कुछ बिखर रहा है. कुछ वक़्त के लिए, वे कमरे में मौजूद सबसे स्मार्ट लोग मालूम देते हैं.
मैंने ऐसी स्थिति पर पहले भी लिखा है: निराशावादी लोग समझदार लगते हैं, और आशावादी लोग पैसे कमाते हैं. ये निवेश के उन तमाम विरोधाभासी सत्य में से एक है जो मौजूदा बाज़ार जैसी गिरावट के दौरान ख़ासतौर से प्रासंगिक हो जाते हैं. भारतीय बाज़ार में काफ़ी गिरावट आई है, जिसका स्मॉल कैप ने बड़ा ख़ामियाज़ा उठाया है, और ग्लोबल मार्केट भी इस उथल-पुथल से अछूते नहीं रहे हैं.
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गिरावट के दौरान मंदी (bearish) नज़रिए को इतनी इज़्ज़त क्यों मिलती है? एक बात तो ये है कि मंदी के तर्क अक्सर ठोस, नापे जाने वाले फ़ैक्टरों पर निर्भर करते हैं: बढ़ती ब्याज दरें, महंगाई की चिंताएं, जियो-पोलीटिकल तनाव या वैल्यएशन मेट्रिक्स. ये ख़ास लगता है और डेटा पर आधारित होने की वजह से प्रभावित करने वाला लगता है. इस बीच, आशावादी को ज़्यादा अमूर्त धारणाओं का सहारा लेना होता है: मानवीय कौशल, जल्दी हालातों से ढल जाने वाली कंपनियां, और फ़ाइनेंशियल ग्रोथ का लंबा समय. विनाश की सटीक भविष्यवाणियों के ख़िलाफ़, आशावाद भोला-भाला या अंजान लग सकता है.
हाल ही में हेलिओस म्यूचुअल फ़ंड के सी.ई.ओ. समीर अरोड़ा, जिनका रुख़ सतर्कता के साथ आशावाद का था, और एक नामी-गिरामी बाज़ार के निराशावादी के बीच हुई एक सार्वजनिक चर्चा में यही बात साफ़ तौर से दिखाई दी. निराशावादी ने पूरे आत्मविश्वास से मंदी का नज़रिया पेश किया, जिसमें थके हुई मार्केट साइकिल और उस गिरावट की बात की जिसका होना पक्का ही था. "झील की थ्योरी" का इस्तेमाल करते हुए, निराशावादी ने तर्क दिया कि बाज़ारों की, ठीक झीलों की ही तरह, रिटर्न देने की एक सीमित क्षमता होती है और भारतीय इक्विटी ने अपनी प्राकृतिक सीमाओं को पार कर लिया है, जिससे ठहराव या गिरावट की लंबी अवधि की ज़रूरत आ पड़ी है.
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ये पूरी कल्पना की तस्वीर सम्मोहक लगी - एक लबालब भरी झील को आख़िरकार पीछे हटना ही होता है. निराशावादी ने सटीक आंकड़े पेश किए: 48% CAGR के स्मॉल-कैप रिटर्न ने "झील" को ख़ाली कर दिया था, और अब निवेशकों को कई साल तक घटिया प्रदर्शन का सामना करना होगा. इस तरह की बातें बड़ी आधिकारिक और जानकार व्यक्ति की लगती हैं, ख़ासकर जब इसे फटते हुए बांधों और सूखती झीलों के नाटकीय नज़ारे के साथ पेश किया जाता है.
हालांकि, आशावादी के तर्कों का जवाब कम नाटकीय ढंग से आया, लेकिन इसमें एक समझदारी थी: ज़रूरी नहीं कि बहुत लंबे समय के बाद गिरने वाला बाज़ार लंबे समय की मंदी के दौर में उतर रहा हो, बल्कि हो सकता है कि बाज़ार बस नॉर्मल या सामान्य हो रहा हो. कभी-कभी, ये गिरावटें पहले के कमतर प्रदर्शन की भरपाई करती हैं, जिससे लंबे अर्से में एक सकारात्मक पक्ष और पूरी तस्वीर समझ आती है.
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इस बौद्धिक बहस को देखने वाले रिटेल निवेशक के लिए एक प्रैक्टिकल सवाल तस का तस बना हुआ है: अब मुझे क्या करना चाहिए? इसका जवाब, शायद बेहद सीधा-सादा है, एक क़दम पीछे हटना और बुनियादी बातों पर ध्यान देना. सबसे पहले, याद रखिए कि किसी भी अच्छी लंबे समय के दौरान - तीन साल, पांच साल और उससे ज़्यादा - क्वालिटी वाली इक्विटी ने ज़्यादातर विकल्पों से बेहतर रिटर्न दिए हैं. अभी हम जिस उतार-चढ़ाव को देख रहे हैं, वो इस समय भले ही नाटकीय लगें, लेकिन दशकों के अर्से में देखने पर ये छोटा सा बिंदू हो जाएंगे.
दूसरा, ये स्वीकार कीजिए कि बाज़ार के फ़ंडामेंटल या बुनियादी सिद्धांत मोटे तौर पर मज़बूत बने हुए हैं. तमाम वैश्विक अनिश्चितताओं के बावजूद, ठीक से मैनेज की जाने वाली कंपनियां, ख़ुद को एडजस्ट करना और वैल्यू क्रिएट करना जारी रखे हुए हैं. बाज़ार में गिरावट ने बिज़नसों के उन सिद्धांतों को अचानक बेकार नहीं साबित कर दिया है.
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तीसरी, और सबसे उलटी लगने वाली बात इस बात को पहचानना है कि मंदी अवसर पैदा करती है. अगर आप एक महीने पहले किसी अच्छी कंपनी में निवेश करने के लिए तैयार थे, तो आज उसे डिस्काउंट पर ख़रीदने के लिए आपको और ज़्यादा उत्साहित होना चाहिए. बड़े रिटर्न की नींव अक्सर बाज़ार के कमज़ोर दौर में रखी जाती है जब क्वालिटी वाले एसेट सही क़ीमत पर उपलब्ध होते हैं.
इसका मतलब ये नहीं है कि आर्थिक चुनौतियों पर उन चिंताओं को ख़ारिज कर दिया जाए जो सही हैं या गिरते हुए बाज़ार में अंधाधुंध ख़रीदारी करनी शुरू कर दी जाए. समझदारी से काम लेना हमेशा ही ज़रूरी होता है. मज़बूत बुनियादी बातों, तर्कसंगत वैल्युएशन और टिकाऊ प्रतिस्पर्धी फ़ायदों वाले बिज़नस को ध्यान में रख कर निवेश करना इस वक़्त पहले से कहीं ज़्यादा मायने रखता है.
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निवेशकों की असली परीक्षा मार्केट की अगली चाल की भविष्यवाणी में नहीं, बल्कि दूसरों के घबराने पर भी तर्क के साथ काम करने की आदत डालने में है. याद रखिए कि जैसे-जैसे शोर बढ़ता है और लंबी मंदी की भविष्यवाणियां ज़्यादा सटीक लगने लगती हैं, ऐसे में निवेश की सफलता स्मार्ट दिखने में नहीं, बल्कि वक़्त के साथ सही साबित होने के बारे में है.
शॉर्ट-टर्म में यथार्थवादी बनिए और लॉन्ग-टर्म में आशावादी. ये बाज़ार की गिरावटों से निपटने और ज़िंदगी भर धन जमा करने का अजेय सूत्र है. जब दूसरे तुरंत शोर पर ध्यान दे रहे हों, तब जो लोग इस तरीक़े को अपनाए रखते हैं, वे शायद ख़ुद को गिनती के लोगों में पाएंगे जो बाज़ार की गिरावट के बावजूद न केवल खड़े रहते हैं बल्कि आने वाले वक़्त में ग्रोथ के लिए भी तैयार रहते हैं.
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