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मंझी हुई और सोफ़स्टिकेटेड डिजिटल स्कैम के इस दौर में, जहां ठग फ़ोन स्क्रीन और वेबपेज पॉप-अप के पीछे रहते हैं, वहीं बेमन से ही सही पर इस टोरेस ज्वेलरी घोटाले को उसके क्लासिक तरीक़े के लिए भी देखा जाना चाहिए. आज जब ज़्यादातर साइबर क्रिमिनल अपने ऑटोमेटेड वॉयस मैसेज और फ़िशिंग टैक्नीक को निखारने में लगे हैं, तब इन लोगों ने एक विशुद्ध पारंपरिक ठगी को अंजाम दिया है - असली दुकान खोल कर, असली गहने रख कर और पुराने ज़माने की तरह आमने-सामने बैठ कर ठगी की गई.
मुंबई में चलने वाली ये टोरेस स्कीम 1990 के दशक की एक क्लासिक ठगी लगती है. ये वैध लगने वाले बिज़नस जैसा था जो मोइसैनाइट पत्थरों में निवेश पर ज़बरदस्त रिटर्न का वादा करता था - ये 3-7% साप्ताहिक और 520% तक के सालाना रिटर्न की बात है. ठगी करने वालों ने इसे आधुनिक फ़ाइनेंशियल धोखाधड़ी के फ़ेवरेट तरीक़े, क्रिप्टोकरेंसी या NFT के साथ जोड़ कर इसे जटिल बनाने की कोशिश भी नहीं की. इसके बजाय, वे समय की कसौटी पर परखे फ़ॉर्मूले पर ही टिके रहे: खु़द ही आमने-सामने बैठ कर, पुराने निवेशकों को पैसे देने के लिए नए निवेशकों से पैसे लिए, अपनी स्कीम में मल्टी-लेवल मार्केटिंग का तड़का लगाया, और क़ीमती पत्थरों के साथ अपनी ठगी की दुकान चमकाई.
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लेकिन यहां हर किसी के लिए चिंतित होने वाली एक बात है: दशकों से इसी तरह के घोटाले, अनगिनत चेतावनियों और आगाह करने वाली कहानियों के बावजूद, क़रीब 1.25 लाख निवेशक इनके झांसे में आ गए, और माना जा रहा है कि ₹1,000 करोड़ का नुक़सान हुआ. ये कोई रातों-रात किया जाने वाला ऑपरेशन नहीं था. टोरेस ने सरेआम कई स्टोर चलाए, त्यौहारों के मौसम में आक्रामक मार्केटिंग की और सही होने का एक ऐसा दिखावा किया जो चार्ल्स पोंज़ी का सीना भी गर्व से चौड़ा कर दे.
चीज़ें जितना बदलती हैं, उतनी ही वे वैसी ही रहती हैं. जैसा कि मैंने सीनियर सिटिज़न को टार्गेट करने वाले डिजिटल घोटालों के बारे में एक पिछले कॉलम में बताया था, धोखेबाज़ अपने तरीक़ों में तेज़ी से सोफ़स्टीकेटेड होते जा रहे हैं. फिर भी टोरेस का ये मामला हमें याद दिलाता है कि मानव स्वभाव ही हमारी सबसे बड़ी कमज़ोरी है. चाहे वो किसी संदिग्ध कुरियर पैकेज को लेकर रिकॉर्ड किए संदेश के जवाब में अपने फ़ोन पर '1' दबाना हो या अपनी बचत पर असंभव लगने वाले रिटर्न का वादा करने वाली स्कीमों में निवेश करना हो, जिस मूलभूत कमज़ोरी का शोषण किया जा रहा है, वो एक ही है - हमारा शाश्वत आशावाद कि हम किसी तरह जल्दी अमीर बनने के दुर्लभ मौक़ा गंवा रहे हैं.
नुक़सान होने के बाद अधिकारियों को इन धोखेबाज़ों का पीछा करने से ज़्यादा कुछ करने की ज़रूरत है. मुंबई पुलिस की आर्थिक अपराध शाखा फ़रार हो चुके मास्टरमाइंडों के लिए छापेमारी और लुक आउट सर्कुलर जारी कर रही है, लेकिन क्या बेहतर नहीं होगा कि ऐसी स्कीमों का पता पहले ही लगा लिया जाए? हमें भविष्य में ऐसे ठगों को इतनी बड़ी ठगी करने से पहले दो बार सोचने के लिए मजबूर करने के लिए कड़ी मिसालें पेश करनी चाहिए.
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हालांकि, ईमानदारी से कहें तो रेग्युलेशन और उन पर अमल केवल एक हद तक ही क़ारगर हो सकते हैं. निवेशक के तौर पर, हमें ऐसी किसी भी स्कीम पर संदेह करना ही चाहिए जो बहुत बड़े रिटर्न का वादा करती हो. अगर कोई आपको 520% सालाना रिटर्न की पेशकश करता है, तो आपकी पहली प्रतिक्रिया उलटी दिशा में भागने की होनी चाहिए, न कि अपने बैंक बैलेंस की जांच करके ये देखने की कि आप उसमें कितना निवेश कर सकते हैं.
सबसे ज़्यादा चिंता की बात है कि जहां ये घोटाले अपने टार्गेट्स को लेकर ज़्यादा रिफ़ाइंड होते जा रहे हैं, वहीं बुनियादी तौर पर सरल बने हुए हैं. मिसाल के तौर पर, टोरेस स्कीम ने गहनों की ख़रीदारी के साथ त्यौहारों के सीज़न को जोड़ कर चालाकी से फ़ायदा उठाया. उन्हें समझ में आ गया कि लोग ऐसे बिज़नस पर ज़्यादा भरोसा करते हैं जिसे वे देख और छू सकते हैं, ख़ास तौर पर ऐसे बिज़नस जो पारंपरिक रूप से क़ीमती पत्थरों से जुड़ा हो.
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जैसा कि मैंने फ़ाइनेंशियल ठगी पर चर्चा करते हुए पहले भी ज़ोर दिया है कि ऐसे कामों का तरीक़ा और उसे अंजाम देने का ज़रिया बदल सकता है, लेकिन बुनियादी सिद्धांत वही रहते हैं. चाहे वो आपके फ़ोन पर कोई आवाज़ हो जो आपको कानूनी नोटिस से डराने की कोशिश कर रही हो या कोई गहनों का स्टोर जो असंभव से रिटर्न का वादा कर रहा हो, सबसे अच्छा बचाव वही रहता है - संदेह की एक स्वस्थ ख़ुराक और ये पहचानने की समझदारी कि मैं लंबे समय से क्या मानता आया हूं - कि असली पूंजी खड़ी करने का तरीक़ा आमतौर पर धीमा और स्थिरता लिए होता है.
टोरेस मामले को देख कर हमें याद करना चाहिए कि पैसों से जुड़े मामलों में अगर कुछ बहुत ज़्यादा चमक रहा है, तो शायद ये मूर्खों का सोना है. जहां हम निगरानी और इनफ़ोर्समेंट सिस्टम के मज़बूत होने का इंतज़ार कर रहे हैं, वहीं हमें याद रखना चाहिए कि सामान्य ज्ञान डिजिटल या पारंपरिक धोखाधड़ी के ख़िलाफ़ बचाव की पहली लाइन है.
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