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हीरे का मिथक

हीरे की क़ीमत में बरसों का ठहराव क्यों निवेश के तौर पर इसके फ़ेल होने की असली कहानी नहीं

हीरे का मिथक: क्यों हीरे निवेश के तौर पर असफल साबित हुए हैं |AI-generated image

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पिछले दो दशकों में हीरे की क़ीमतों में किस तरह का ठहराव बना रहा है, इसे लेकर हाल ही में काफ़ी चर्चाएं हुई हैं, जिसमें अलग-अलग एक्सपर्ट इस बात पर विचार कर रहे हैं कि क्या इन क़ीमती पत्थरों को निवेश माना जा सकता है. हालांकि, इस पूरे विमर्ष में एक बुनियादी बात छूट गई है—असल में हीरे कभी निवेश थे ही नहीं, और ये ख़याल कि वे निवेश हो सकते हैं, एक चालाकी से गढ़ा गया मार्केटिंग मिथक है.

22 साल में डायमंड स्टैंडर्ड इंडेक्स के फीके प्रदर्शन पर हाल ही में ध्यान दिया जाना ख़बर लग सकता है. लेकिन, इससे केवल यही पता चलता है कि बचत करने वाले समझदार लोग लंबे समय से ये बात जानते रहे हैं: हीरे का मार्केट किसी भी दूसरे निवेश के बाज़ार से बिल्कुल अलग है. किसी भी निवेश का बुनियादी सिद्धांत केवल उसका बताया गया मूल्य नहीं, बल्कि उस मूल्य को पाना होता है—यानि, जब आप उसे बेचना चाहते हैं तब उसकी क़ीमत पाना, और इसमें ये मायने रखता है कि तब आपको अपने निवेश के बदले में क्या मिलेगा. जहां तक हीरे की बात है, तो इसमें सिद्धांत और असलियत के बीच के अंतर पर अगर हल्के अंदाज़ में कहें, तो बहुत बड़ा है.

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हीरे का ये अजीबोगरीब स्वभाव यूं ही नहीं है—ये डिज़ाइन ही इस तरह से किया गया है. ये कहानी 1870 की है जब दक्षिण अफ़्रीका में बड़े पैमाने पर हीरे की खोज हुई और उसने इस पत्थर की क़ीमत को हमेशा के लिए बरबाद करने की ठान ली. अब इसका समाधान क्या था? सप्लाई और क़ीमत को क़ाबू करने के लिए मनोपली या एकाधिकार बनाया गया, जो डी बीयर्स कहलाया. लेकिन असली मास्टरस्ट्रोक 1938 में तब आया, जब संस्थापक के बेटे हैरी ओपेनहाइमर ने इतिहास के सबसे सफल मार्केटिंग अभियानों में से एक शुरू किया, जिसमें हीरे को महज़ क़ीमती पत्थर कहने के बजाए शाश्वत प्रेम और मूल्य के प्रतीक के तौर पर तराश कर चमका दिया गया.

इस मार्केटिंग अभियान ने सिर्फ़ हीरे नहीं बेचे; इसने ये सोच भी बेची कि हीरे कभी नहीं बेचे जाने चाहिए. अभियान का प्रसिद्ध स्लोगन "हीरा है सदा लिए" (diamonds are forever) सिर्फ़ एक रोमानी कविता नहीं थी - ये रीसेल मार्केट को रोकने की एक शानदार तरक़ीब थी, जो हीरे का असली अर्थशास्त्र उजागर कर सकता था. आख़िर, अगर कोई अपने हीरे बेचेगा ही नहीं, तो ये कबी जान भी नहीं पाएगा कि रीसेल करने पर उसकी क़ीमत कितनी कम है.

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हीरे की क़ीमत में ठहराव के बारे में आज की चर्चाएं इस बात को भूल जाती हैं. इंडेक्स कुछ निश्चित मूल्य का स्तर दिखा सकता है, लेकिन ये नंबर आम निवेशक के लिए सैद्धांतिक ही हैं. हीरा बेचने की कोशिश करें, तो आपको कट, क्लैरिटी, कलर और सर्टिफ़िकेशन की तकनीकी ख़ूबियों की भूलभुलैया से जूझना पड़ेगा - ये ऐसे फ़ैक्टर हैं जो हमेशा आपके पत्थर की क़ीमत को उसी जैसे दूसरे हीरे की क़ीमत से काफ़ी कम कर देंगे.

इस कहानी में एक बड़ा मोड़ लैब में तैयार हीरे लाए हैं, जो अब लागत के एक छोटे से हिस्से में उसी तरह के पत्थर देते हैं. जहां इस नई तकनीक ने पारंपरिक बाज़ार को चोट पहुंचाई है, वहीं इसने अनजाने में हीरे की क़ीमत की आर्टिफ़िशियल नेचर या कृत्रिम प्रकृति को भी उजागर कर दिया है. प्रयोगशाला में तैयार हीरों को लेकर इंडस्ट्री की प्रतिक्रिया खोखली लगती है जिसमें - प्राकृतिक हीरों की 'प्रामाणिकता' और 'दुर्लभता' पर ज़ोर दिया जाता है. जब आप इस विषय में सोचेंगे तो पाएंगे कि हीरे के मूल्य की पूरी अवधारणा मार्केटिंग के ज़रिए गढ़ी गई थी.

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हीरे की क़ीमत में ठहराव की जो कहानी आजकल चल रही है उसके बारे में ख़ासतौर से दिलचस्प बात ये है कि इस पर चर्चा ऐसे की जा रही है जैसे ये बाज़ार की कोई आम घटना हो, जैसे स्टॉक की क़ीमतों में गिरावट या सोने के बाज़ार में सुधार. लेकिन इन बाज़ारों के उलट, हीरे का रीसेल मार्केट कभी भी पारदर्शी और बेच कर तुरंत क़ीमत पाने वाला नहीं रहा. जब आप स्टॉक या सोना ख़रीदते हैं, तो आपको पता होता है कि जब आप बेचेंगे तो आपको क्या मिलेगा. एक सच्चे निवेश की ये बुनियादी ख़ूबी हीरे के मामले में हमेशा ग़ायब रही है.

लंबी अवधि में पूंजी बढ़ाने की चाहत रखने वाले भारतीयों के लिए, सबक़ सिर्फ़ ये नहीं है कि हीरे की क़ीमतें नहीं बढ़ी हैं - वो तो रिटेल निवेशक के लिए कभी बढ़ने ही नहीं वाली थीं. हीरे के बाज़ार की पूरी संरचना, इसकी नियंत्रित सप्लाई से लेकर इसकी क़ीमत तय करने के अंजान तरीक़े तक, एक ही दिशा में क़ीमत बढ़ने के लिए डिज़ाइन की गई थी: बेचने वालों की ओर न की ख़रीदने वालों की ओर.

इसलिए, जब हम 22 साल से हीरे की क़ीमतों में ठहराव के बारे में हेडलाइनें देखते हैं, तो शायद हम ग़लत सवाल पूछ रहे हैं. असली सवाल ये नहीं कि हीरे की क़ीमतें क्यों नहीं बढ़ी हैं - बल्कि ये है कि हमने उन्हें निवेश ही क्यों माना. इसके बजाय, असल निवेश वे हैं जो प्रोडक्टिव बिज़नस के ज़रिए असल मूल्य पैदा करते हैं. चाहे वो प्रोडक्ट और सर्विस देने वाले बिज़नस हों, ग्रोथ को पूंजी मुहैया कराने वाले बॉन्ड हों, या काम में आने वाली अचल संपत्ति हो, वास्तविक निवेश में मूल्य पैदा करने के लिए स्पष्ट तंत्र और मूल्य तलाशने के लिए पारदर्शी बाज़ार होते हैं. वे साफ़ तौर पर दिखाई देने वाले रिटर्न, मालिकाना हक़ की स्टैंडर्ड यूनिट्स और, सबसे अहम बात, जब भी ज़रूरत हो, सही बाज़ार मूल्य पर बेचने की क्षमता देते हैं. निवेश के ये मूल सिद्धांत सदियों से बदले नहीं हैं, और कोई भी चालाक मार्केटिंग किसी लग्ज़री ख़रीद को धन पैदा करने के स्रोत में नहीं बदल सकती है.

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