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महंगाई, EPS और बायबैक पर बफ़े की चेतावनी (1978-81 के पत्रों से)

वॉरेन बफ़े की सीखेंमहंगाई का छिपा टैक्स, EPS का भ्रम और अधिग्रहण के पीछे की कड़वी सच्चाई

Buffett के 1978-81 के ख़तों से निकले 6 कड़वे सचAI-generated image

ये कहानी वॉरेन बफ़े के वार्षिक पत्रों को समझने की हमारी सीरीज़ का हिस्सा है. मक़सद सिर्फ़ ये जानना नहीं कि उन्होंने क्या कहा, बल्कि ये समझना भी है कि आज हम उनकी बातों से क्या सीख सकते हैं. 1978 से 1981 के बीच की दुनिया में निवेशकों के लिए बहुत कुछ बदल गया. महंगाई ने ज़ोर पकड़ा, ब्याज दरें बढ़ीं और इक्विटी निवेश की चमक फीकी पड़ गई. बफ़े ने हमेशा की तरह, बिना झपकाए सब देखा—बिलकुल साफ़ नज़रों से.

आइए, 1978 से 1981 तक के उनके ख़तों से निकली बुनियादी सीखों को समझते हैं.

कमोडिटी बिज़नस का बेरहम गणित
1978 में बफ़े ने बर्कशायर के टेक्सटाइल बिज़नस की सच्चाई सामने रखी—एक ऐसा क्लासिक कमोडिटी बिज़नस जिसे उन्होंने हमेशा चेतावनी के तौर पर देखा. काग़ज़ पर ये बिज़नस "सस्ता" दिखता था (मशीनें उनकी रिप्लेसमेंट कॉस्ट से कहीं कम पर दर्ज थीं), लेकिन मुनाफ़ा हमेशा मायूस करने वाला रहा. क्यों?

क्योंकि पूंजी का टर्नओवर कम था और मार्जिन बारीक़—एक साथ दोहरी चोट. मैनेजमेंट कितना भी अच्छा क्यों न हो, जब पूरी इंडस्ट्री एक ही काम कर रही हो—ख़र्च घटाना, एफ़िशिएंसी बढ़ाना, ट्रेंड के पीछे भागना—तो रिटर्न अच्छे नहीं आते.

बफ़े ने लिखा, टेक्सटाइल जैसे बिज़नस और दूसरे उसी जैसे प्रोडक्ट बनाने वाले बिज़नस तब तक अच्छे रिटर्न नहीं देते जब तक डिमांड-सरप्लस न हो. और जब सप्लाई ज़्यादा होती है, तो क़ीमतें ऑपरेटिंग कॉस्ट के स्तर तक गिर जाती हैं—पूंजी पर कोई रिटर्न नहीं मिलता. ये एक ऐसा खेल है जो आपके हक़ में नहीं रहता.

रिटर्न ऑन इक्विटी बनाम EPS का भ्रम
बफ़े ने हमेशा EPS (अर्निंग्स पर शेयर) को सीधे तौर पर देखने से मना किया है, और 1979 के पत्र में उन्होंने इस चेतावनी को साफ़-साफ़ लिखा. एक बढ़ता हुआ EPS अक्सर उतना ही भ्रामक होता है जितना एक बंद घड़ी. आप शायद बस रिटेन्ड अर्निंग्स के कंपाउंडिंग इफ़ेक्ट को देख रहे हों—जैसे सेविंग अकाउंट पर ब्याज आता है—और उसे असली ग्रोथ समझ बैठें.

इसके बजाय, बफ़े ने हमेशा ROE (रिटर्न ऑन इक्विटी) पर ध्यान देने को कहा—न कि ऐसा ROE जो लीवरेज या अकाउंटिंग ट्रिक्स से फुलाया गया हो, बल्कि एकदम साफ़-सुथरा. अगर कोई बिज़नस अपने शेयरहोल्डर्स की लगाई पूंजी पर अच्छा रिटर्न नहीं दे पा रहा, तो EPS कितना भी अच्छा क्यों न दिखे, कोई फ़ायदा नहीं.

ये एक सीधी बात है जिसे ज़्यादातर निवेशक और कई CEO भी जानबूझकर भूल जाते हैं.

टर्नअराउंड शायद ही कभी सफल होते हैं
बफ़े की सबसे मशहूर बातों में से एक है: "टर्नअराउंड शायद ही कभी टर्न होते हैं." 1979 और 1980, दोनों सालों में उन्होंने इस सोच को दोहराया. कहानी ये होती है: कोई ज़बरदस्त मैनेजर एक बिगड़े हुए बिज़नस को संभालता है और उसे चमकदार बना देता है.

लेकिन असलियत कठोर होती है. ज़्यादातर ख़राब बिज़नस, चाहे कोई भी चला रहा हो, वैसे ही ख़राब रहते हैं. सीख क्या है? मेंढक से प्यार मत करिए. राजकुमार से शादी करिए.

बायबैक, बेमतलब विस्तार से बेहतर
1980 तक बफ़े एक जानी-पहचानी बात को ज़ोर से कह रहे थे: शेयर बायबैक—लेकिन तभी जब वो सही तरीक़े से हो.

अगर कोई अच्छा बिज़नस अपनी इंट्रिंसिक वैल्यू (आंतरिक मूल्य) से कम क़ीमत पर ट्रेड कर रहा हो, तो सबसे समझदारी वाला काम है कि मैनेजमेंट अपने ही शेयर ख़रीदे. ये एक दुर्लभ मौक़ा होता है जब स्टॉक मार्केट आपको वो चीज़ सस्ते में देता है जो आपके पास पहले से है.

अब इसकी तुलना कीजिए किसी नई कंपनी के अधिग्रहण से—जो अक्सर प्रीमियम पर होता है, बस इसलिए कि कंपनी का साइज़ बढ़ जाए. पहला क़दम चुपचाप दौलत बढ़ाता है, दूसरा अक्सर पछतावे की साम्राज्य-निर्माण यात्रा बन जाता है.

महंगाई: वो छुपा टैक्स जो पूंजी को खा जाता है
इस दौर की सबसे तीखी बात शायद बफ़े की 1980 की महंगाई पर चेतावनी है. जब महंगाई एक स्तर से ऊपर चली जाती है, तो वो पूंजी पर टैक्स बन जाती है—जो असली निवेश रिटर्न को निगल जाती है, भले ही काग़ज़ पर मुनाफ़ा दिखे.

कल्पना कीजिए कि आप 20% का रिटर्न ऑन इक्विटी कमा रहे हैं. शानदार लग रहा है. लेकिन अगर टैक्स ब्रैकेट 50% है (जैसा उस वक़्त अमेरिका में था) और महंगाई 12% है, तो असल में आप ख़रीदने की ताक़त (purchasing power) खो रहे हैं. आपकी पूंजी कटी जा रही है, जबकि लोग आपको "कमाई" के लिए बधाई दे रहे हैं.

यहां ख़तरा बहुत बारीक़ लेकिन बहुत तेज़ है. महंगाई सिर्फ़ आपके रिटर्न को नहीं, आपकी उम्मीदों को भी टैक्स करती है.

और ये यहीं नहीं रुकता.

क्योंकि महंगाई ख़राब बिज़नस को मजबूर करती है कि वो ज़्यादा पूंजी बचाकर रखें—ग्रोथ के लिए नहीं, बस ज़िंदा रहने के लिए. एक बेकार बिज़नस महंगाई की दुनिया में कैश जमा करता है ताकि इन्वेंट्री, रिसीवेबल्स, सब कुछ चला सके. वो करना नहीं चाहता, लेकिन उसे करना पड़ता है.

ये एक क्रूर मज़ाक है: जितना बेकार बिज़नस, उतनी ज़्यादा पूंजी की ज़रूरत—और उतना ही ज़्यादा बर्बादी.

राजकुमारी, मेंढक और ख़तरनाक अधिग्रहण
1981 में बफ़े ने महंगे अधिग्रहण के पीछे की मनोविज्ञान पर हमला बोला. CEO अकसर इस भ्रम में रहते हैं कि उनका "मैनेजरियल किस" एक बुरी कंपनी को चमत्कार में बदल देगा.

समस्या? मेंढक, मेंढक ही रहता है. और अंत में ख़ामियाज़ा भुगतते हैं—अधिग्रहण करने वाली कंपनी के शेयरहोल्डर.

इस बेवकूफ़ी के पीछे की वजहें? अहम, साम्राज्य बनाने की लालसा, और सिंर्जी में बेवजह की आस्था. आख़िरकार, साइज़ अब भी फ़ॉर्च्यून 500 में ऊंचा रैंक देता है. लेकिन बेहतर रिटर्न नहीं.

बफ़े की सलाह सीधी थी: किसी बेहतरीन बिज़नस का 10% अच्छा दाम देकर ख़रीदिए, बजाय किसी औसत बिज़नस का 100% बेवकूफ़ी के दाम पर लेने के.

क्या अब भी इक्विटी फ़ायदे का सौदा है?
इस दौर में बफ़े ने एक बड़ा और असहज सवाल पूछा: क्या इक्विटी पूंजी अब भी अपना काम कर रही है?

पहले के दशकों में बिज़नस 11% का ROE कमाते थे और बॉन्ड्स पर ब्याज बहुत कम होता था. स्टॉक्स को प्रीमियम मिलना स्वाभाविक था. लेकिन 1981 तक बॉन्ड की यील्ड इक्विटी रिटर्न से ऊपर चली गई थी. और वो इक्विटी रिटर्न टैक्स के बाद ही निवेशकों को मिलता था.

यानि आम निवेशकों के लिए स्टॉक्स अब बॉन्ड्स से बेहतर नहीं थे. बल्कि, कई बार वे वैल्यू को नुक़सान पहुंचा रहे थे. वो वैल्यू एडेड प्रीमियम, जो एक समय इक्विटी को ख़ास बनाता था, चुपचाप ग़ायब हो चुका था.

जब तक महंगाई नहीं घटती और ब्याज दरें नहीं गिरतीं, बफ़े ने चेताया—अधिकतर अमेरिकी कंपनियां "बुरी" बनी रहेंगी. रिपोर्ट में भले मुनाफ़ा दिखे, लेकिन असली दौलत नहीं बनेगी.

नतीजा: जब दुनिया बदल रही हो, तो आप भी बदलिए
बफ़े के 1978 से 1981 के पत्र असहज सच्चाइयों की पाठशाला हैं. दुनिया तेज़ी से बदल रही थी—महंगाई, ब्याज दरें और निवेशकों की अपेक्षाएं सब कुछ, लेकिन ज़्यादातर मैनेजर और निवेशक पुराने भ्रमों से चिपके हुए थे. बफ़े ने ऐसा नहीं किया. उन्होंने सब पर सवाल उठाया—अर्निंग्स, अधिग्रहण, यहां तक कि इक्विटी पर भी.

और इस प्रक्रिया में, वो हमें याद दिलाते हैं कि निवेश कहानी ढूंढने का काम नहीं है. ये असली आर्थिक सच्चाई से आंख मिलाने का काम है—चाहे वो कितनी भी तकलीफ़देह क्यों न हो.

सपने में सोते रहने से अच्छा है कि वक़्त रहते जाग जाएं.

ये भी पढ़ें: वॉरेन बफ़े का 1988 का ख़त: अकाउंटिंग के झोल और CEO की जवाबदेही

ये लेख पहली बार अप्रैल 04, 2025 को पब्लिश हुआ.

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