सबसे व्यापक स्टॉक रेटिंग के साथ ख़ुद को सशक्त बनाएं जो सही मायने में लॉन्ग-टर्म स्टॉक निवेश का निचोड़ है.
क्या इतने सारे स्टॉक के बीच चुनाव मुश्किल है? क्या एनेलाइज़ करने के कुछ ज़्यादा ही फ़ाइनेंशियल पैरामीटर हैं?
वैल्यू रिसर्च स्टॉक रेटिंग सुलझाएगी, स्टॉक इन्वेस्टिंग के सबसे बड़े चैलेंज को.
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- फ़ाइनेंशियल डेटा के 100 से ज़्यादा प्वाइंट कैप्चर करने वाली इस रेटिंग में आपको स्टॉक की हर बुनियादी बात का तुरंत पता लग जाएगा.
वैल्यू रिसर्च स्टॉक रेटिंग की ख़ूबियां
- समय बचाए. तमाम तरह के फ़ाइनेंशियल पैरामीटर को एनेलाइज़ करने में अब घंटों लगाने की कोई ज़रूरत नहीं; हमारी रेटिंग एक ही व्यापक स्कोर दिखाती है.
- एक्सपर्ट्स का बनाया. हमारी इन-हाउस इक्विटी रिसर्च टीम ने इसे क्यूरेट और डवलप किया है.
- किसी व्यक्ति का दख़ल नहीं. रेटिंग्स हर रोज़ मार्केट के समय से पहले डिजिटली कैलकुलेट और रिफ़्रेश की जाती हैं.
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हमारी स्टॉक रेटिंग के चार आयाम:
क्वालिटी: यहां बेस्ट रेटिंग वाली ऐसी कंपनियां तलाशें, जो ज़्यादा एफ़िशिएंट हों और जिनकी बैलेंस शीट भी मज़बूत हो. ज़्यादा जानने के लिए यहां क्लिक करें.
वैल्युएशन: अपनी ऐतिहासिक रेंज के मुक़ाबले आकर्षक प्राइस पर मौजूदा समय में उपलब्ध बेस्ट वैल्यू वाले स्टॉक खोजें. ज़्यादा जानने के लिए यहां क्लिक करें.
ग्रोथ: सबसे तेज़ ग्रोथ करने वाले ऐसे स्टॉक तलाशें जिनके बिज़नस में इस समय बहुत तेज़ बढ़ रहे हैं. ज़्यादा जानने के लिए यहां क्लिक करें.
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कंपोज़िट 5-स्टार रेटिंग: बुनियादी तौर पर मज़बूत और सही प्राइस पर ग्रोथ करने वाली वाली कंपनियां तलाशें. ज़्यादा जानने के लिए यहां क्लिक करें.
क्या आपके और भी सवाल हैं? पढ़िए, अक्सर पूछे जाने वाले सवाल.
वैल्यू रिसर्च स्टॉक रेटिंग की शुरुआत कैसे हुई?
स्टॉक रेटिंग का पहला बीज तीस साल पहले तब बोया गया, जब वैल्यू रिसर्च ने बिज़नस टुडे के लिए BT वैल्यू रिसर्च स्क्रिपलाइन को डवलप किया.
ये स्टॉक निवेश को आसान बनाने और रिलेटिव रेटिंग के साथ मौलिक तौर पर मज़बूत स्टॉक की पहचान करने की पहली कोशिशों में से एक थी, जिसमें 611 स्टॉक्स को पांच ग्रेड्स में क्लासिफ़ाई किया गया था.
तब से…
हमने 2007 में वैल्थ इनसाइट मैगज़ीन लॉन्च की—जो लॉन्ग-टर्म इन्वेस्टिंग को लेकर स्टॉक निवेश की बुनियादी बातों पर फ़ोकस करने वाली एकमात्र मैगज़ीन थी.
हमने लॉन्ग-टर्म वैल्थ बनाने पर फ़ोकस करने वाले शेयरों की सिफ़ारिश के लिए 2017 में स्टॉक एडवाइज़र सर्विस लॉन्च की. तब से, हमारे कई रेकमेंडेशन मल्टीबैगर बन चुके हैं.
स्टॉक रेटिंग का इस्तेमाल कैसे करें
एक्सचेंज पर लिस्टिड हज़ारों स्टॉक्स से संभावित निवेश की मैनेज की जाने वाली छोटी लिस्ट पाने के लिए, निवेशक स्टॉक रेटिंग का इस्तेमाल प्राइमरी फ़िल्टर के तौर पर कर सकते हैं. हमारे स्टॉक स्क्रीनर के साथ जोड़ने पर, स्टॉक रेटिंग आपकी अपनी निवेश फ़िलॉसफ़ी के आधार पर स्टॉक सलेक्शन में मदद का एक क़ारगर टूल का काम कर सकती है.
चार-पैरामीटर वाला स्टॉक रेटिंग सिस्टम
स्टॉक निवेश कई आयामों और निवेश के स्टाइल वाला एक जटिल फ़ैसला है. एक ग्रोथ इन्वेस्टर हाई-ग्रोथ की संभावनाओं वाली अच्छी क्वालिटी की कंपनी को प्राथमिकता दे सकता है. हालांकि, एक वैल्यू इन्वेस्टर सस्ते में उपलब्ध हाई क्वालिटी वाली कंपनी को चुन सकता है. वहीं एक मोमेंटम इन्वेस्टर एक ऐसी कंपनी पसंद कर सकता है जिसके अच्छे क्वालिटी फ़ाइनेंशियल हों और उसके दामों में ऊपर की तरफ़ बढ़ने का मोमेंटम हो. इसलिए, किसी स्टॉक को एक ही रेटिंग के आधार पर नहीं आंका जा सकता, और इसलिए हम हर स्टॉक के लिए चार स्कोर देते हैं:
- क्वालिटी स्कोर
- ग्रोथ स्कोर
- वैल्युएशन स्कोर
- मोमेंटम स्कोर
निवेशक अपने इन्वेस्टमेंट स्टाइल के आधार पर फ़ैसले लेने के लिए इन रेटिंग्स का इस्तेमाल कर सकते हैं. मिसाल के तौर पर, एक क्वालिटी पर फ़ोकस करने वाला वैल्यू इन्वेस्टर, हाई वैलुएशन स्कोर के साथ हाई-क्वालिटी स्कोर जोड़ कर देख सकता है. एक ग्रोथ इन्वेस्टर, हाई क्वालिटी स्कोर को ग्रोथ स्कोर से जोड़ कर देख सकता है. इसके उलट, एक मोमेंटम इन्वेस्टर मीडियम टर्म के दौरान प्रदर्शन बेहतर करने के लिए मोमेंटम स्कोर के साथ सभी तीन स्कोर जोड़ सकता है. निवेशक हमारी जांची-परखी कंपोज़िट रेटिंग भी ले सकते हैं.
क्वालिटी स्कोर
क्वालिटी स्कोर का काम किसी कंपनी की क्वालिटी को मात्रात्मक या क्वांटिटेटिव तरीक़े से दिखाना है, और बिज़नस की एफ़िशिएंसी और बैलेंस शीट की क्वालिटी के दो पहलुओं को रेटिंग में शामिल करने की कोशिश करना है.
बिज़नस एफ़िशिएंसी: ज़्यादा प्रॉफ़िट मिलना, हाई क्वालिटी बिज़नस का नतीजा होता है. संसाधनों (रिसोर्स) के आधार पर लगातार हाई रिटर्न देना एक शानदार बिज़नस की निशानी है. बिज़नस की एफ़िशिएंसी तय करने और उसके मुताबिक़ कंपनियों की रैंकिंग में इस्तेमाल होने वाले पैरामीटर इस तरह हैं:
- इक्विटी पर रिटर्न: जितना ज़्यादा, उतना बेहतर
इक्विटी पर रिटर्न (return on equity) प्रतिशत में होता है जो ये पता करने में मदद करता है कि कोई कंपनी कितनी एफ़िशिएंसी से आपका निवेश टैक्स के बाद का प्रॉफ़िट खड़ा करने में इस्तेमाल कर सकती है - इक्विटी पर रिटर्न जितना ज़्यादा होगा, कंपनी का मैनेजमेंट उतना ही एफ़िशिएंट होगा. - कैपिटल पर रिटर्न: जितना ज़्यादा, उतना बेहतर
इक्विटी पर रिटर्न की तरह, कैपिटल पर रिटर्न (return on capital), लगाए गए कैपिटल की एफ़िशिएंसी है. हालांकि, इक्विटी पर रिटर्न के विपरीत, ये ऑपरेटिंग प्रॉफ़िट के साथ डेट और इक्विटी दोनों, यानी लगाए गए कुल कैपिटल पर केंद्रित है. ये ROCE को उन कंपनियों की एफ़िशिएंसी का आकलन करने के लिए ख़ासतौर पर उपयोगी बनाता है जहां डेट कैपिटल स्ट्रक्चर का एक अहम हिस्सा है. - ऑपरेटिंग मार्जिन: जितना ज़्यादा, उतना बेहतर
ऑपरेटिंग प्रॉफ़िट किसी बिज़नस के कोर ऑपरेशन से मिलने वाला लाभ है. इस तरह से, ऑपरेटिंग प्रॉफ़िट मार्जिन कोर ऑपरेशन्स के मुनाफ़े को दिखाता. इसके ज़्यादा होने श्रेय या तो कुशल तरीक़े से लागत को कंट्रोल करने को या प्राइसिंग पावर को दिया जा सकता है. - डेटर्स टू सेल्स (उधार पर बिक्री): जितना कम, उतना अच्छा
डेटर्स या देनदार किसी कंपनी के ग्राहकों का बक़ाया धन दिखाते हैं. ग्राहकों को बहुत ज़्यादा क़र्ज़ देने से शॉर्ट-टर्म लिक्लिडिटी की समस्या हो सकती है. देनदारों को बिक्री के आधार पर बांटने से संभावित समस्या की सीमा का अंदाज़ा लगाने में मदद मिलती है. हाई रेशियो के लिए ज़्यादा जांच की ज़रूरत होती है.
करंट वैल्यू और हिस्टॉरिकल वैल्यू, दोनों ही बातें कंपनियों की रेटिंग तय करती हैं.
बैलेंस शीट की क्वालिटी: बैलेंस शीट क्वालिटी पिछला प्रदर्शन दिखाती है, और सुस्ती के दौर का सामना करने में काफ़ी अहम होती है. अगर किसी बिज़नस को अचानक और बेक़ाबू घटनाओं के कारण अस्थायी झटका लगता भी है, तो मज़बूत बैलेंस शीट ही कंपनी को मुश्किल समय में टिके रहने में मदद करती है. बैलेंस शीट की क्वालिटी जांचने और उसके मुताबिक़ कंपनियों को रैंक करने के लिए इन मापदंडों का इस्तेमाल किया जाता है:
- डेट-इक्विटी रेशियो: जितना कम होगा, उतना बेहतर होगा
ऑपरेशन को फ़ाइनांस करने के लिए धन उधार लेना बुरा नहीं है. हालांकि, अगर उधार ली गई रक़म कंपनी की चुकाने की क्षमता से ज़्यादा है, तो बिज़नस ख़तरे में होता है. इसके अलावा, क़र्ज़ किसी कंपनी के सामने अचानक आने वाले मौक़ों में निवेश करने की आज़ादी को कम कर देता है. डेट-टू-इक्विटी रेशियो आपको ये पता लगाने में मदद करता है कि कंपनी फ़ाइनेंशियल तौर पर फ़िट है या नहीं. - अचानक आने वाली देनदारियां: जितनी कम होंगी, उतना बेहतर होगा
अचानक आने वाली देनदारियां भविष्य के संभावित दायित्व को दिखाती हैं. उनका अस्तित्व किसी ख़ास घटना (घटनाओं) पर निर्भर है. जिससे, उन्हें बैलेंस शीट पर रिपोर्ट नहीं किया जाता. नेट वर्थ के लिए अचानक आने वाली देनदारियों का हाई रेशियो किसी कंपनी की नेट वर्थ के लिए ऑफ़-बैलेंस-शीट देनदारियों के पैदा किए बढ़ते हुए ख़तरे को दिखाता है. - नक़दी और कुल बिक्री जैसी चीज़ों को छोड़कर वर्किंग कैपिटल: जितना कम होगा, उतना बेहतर होगा
वर्किंग कैपिटल (मौजूदा एसेट्स में से मौजूदा देनदारियां घटाकर) किसी कंपनी के रोज़ाना के ऑपरेशन्स में के साथ बंधा हुआ कैपिटलहै. हाई कैपिटल की ज़रूरत वाली कंपनियां अपने ऑपरेशन्स के फ़ाइनेंस के लिए शॉर्ट-टर्म क़र्ज़ का इस्तेमाल करती हैं. अगर विवेक के साथ प्रबंधन नहीं किया गया तो ये कंपनी की फ़ाइनेंशियल स्थिति को कमज़ोर कर सकता है. ऐसी ज़रूरतों का कंज़रवेटिव तौर पर अंदाज़ा लगाने के लिए, हम कैश को हटा देते हैं और उसके बाद मिलने वाले नंबर को बिक्री से विभाजित करते हैं. कम प्रतिशत दिखाता है कि शॉर्ट-टर्म क़र्ज़ की ज़रूरत कम है.
बैंक और NBFCs के लिए, इस तरह के पैरामीटर पर ग़ौर किया जाता है:
- रिटर्न ऑन इक्विटी: जितना ज़्यादा, उतना बेहतर
इक्विटी पर रिटर्न (ROE) एक प्रतिशत वाला आंकड़ा है जो आपको ये अंदाज़ा लगाने में मदद करता है कि कोई कंपनी टैक्स के बाद प्रॉफ़िट बनाने के लिए आपके निवेश का कितनी कुशलता से इस्तेमाल कर सकती है - इक्विटी पर रिटर्न जितना ज़्यादा होगा, मैनेजमेंट उतना ही ज़्यादा कुशल होगा. - रिटर्न ऑन एसेट्स: जितना ज़्यादा, उतना बेहतर
एसेट्स पर रिटर्न (ROA) एक प्रतिशत में दिखाया जाने वाला आंकड़ा है. जो बताता है कि कोई कंपनी अपने एसेट्स में लगाए गए कैपिटल से कमाए प्रॉफ़िट के लिहाज़ से कितना अच्छा प्रदर्शन करती है. एसेट्स पर रिटर्न उतना ही ज़्यादा होगा, कंपनी के मैनेजमेंट के कैपिटल एलोकेशन के फ़ैसले जितने प्रोडक्टिव और बेहतर होंगे. - नेट इंटरस्ट मार्जिन: जितना ज़्यादा, उतना बेहतर
ये क़र्ज़ देने वाले को होने वाली इंटरस्ट इनकम और इंटरस्ट के रूप में आए ख़र्च के बीच का अंतर है, जिसे इनकम-जेनरेटिंग एसेट्स के प्रतिशत के तौर पर दिखाया जाता है. उधार की कम लागत और/या उधार लेने वालों से लिए जाने वाले ऊंचे रेट से नेट इंटरस्ट मार्जिन बढ़ाने में मदद मिलती है. - डेट-टू-इक्विटी: जितना कम, उतना बेहतर
डेट-टू-इक्विटी रेशियो एक लेवरेज रेशियो है जो दिखाता है कि किसी कंपनी का फ़ाइनेंस डेट या इक्विटी से कितना आता है. बैंकों और NBFC में डेट-टू-इक्विटी रेशियो ज़्यादा होता है क्योंकि वो ग्राहकों को उधार देने के लिए कैपिटल उधार लेते हैं. हालांकि, ये बेहतर है कि क़र्ज़ देने वाले अपनी लोन बुक को बढ़ाने के लिए उधार लेने के बजाय डिपॉज़िट्स पर भरोसा करें. - क्यूमिलेटिव प्रोविज़न कवरेज रेशियो: जितना ज़्यादा, उतना सुरक्षित
बैंक अपने मुनाफ़े का एक हिस्सा डिफ़ॉल्ट के समय में ख़राब लोन से निपटने के तरीक़े के तौर पर अलग रखते हैं. क्यूमिलेटिव प्रोविज़न कवरेज रेशियो पिछले पांच साल के दौरान किए गए एग्रीगेट प्रोविज़न को उसी समय के दौरान जोड़ी गई नई ग्रौस नॉन-परफ़ॉर्मिंग एसेट्स से विभाजित करके मापता है. एक ज़्यादा ऊंचे प्रोविज़न कवरेज रेशियो का मतलब है कि बैंक असुरक्षित नहीं है और एसेट क्वालिटी के मुद्दे को संभाल लिया गया है. ये रेशियो किसी बैंक की फ़ाइनेंशियल हेल्थ का अंदाज़ा लगाने में मदद करता है. - कैपिटल एडिक्वेसी रेशियो: जितना ज़्यादा, उतना सुरक्षित
कैपिटल एडिक्वेसी रेशियो किसी बैंक के कैपिटल को उसके रिस्क-वेटेड एसेट्स के प्रतिशत के तौर पर मापता है. ये रेशियो बताता है कि बैंक कितनी अच्छी तरह कैपिटलाइज़्ड है और उसकी घाटे को सहने की क्षमता क्या है. - सस्टेनेबल ग्रोथ रेट (SGR) गैप (यानी, SGR – एक्चुअल अडवांसेज़ ग्रोथ रेट) जहां SGR = ROE x (1 - पेआउट रेशियो): रेशियो ज़ीरो के जितना क़रीब होगा, उतना बेहतर होगा
सस्टेनेबल ग्रोथ रेट वो मैक्सिमम ग्रोथ रेट है जिसे कोई कंपनी एडिशनल इक्विटी या डेट के साथ ग्रोथ को फ़ाइनांस किए बिना अपने अंदरूनी रिसोर्स से बनाए रख सकती है. अडवांस ग्रोथ रेट लोन बुक में ग्रोथ रेट को दिखाती है. अगर SGR और अडवांस ग्रोथ रेट के बीच अंतर बहुत बड़ा है, तो बैंक या तो बहुत ज़्यादा कंजरवेटिव है या बहुत ज़्यादा रिस्क लेने वाला है. अंतर जितना कम हो, उतना अच्छा है.
क्वालिटी स्कोर ऊपर दिए पैरामीटर को ध्यान में रखकर दी गई रैंकिंग और कैलकुलेटेड फ़ील्ड के लिए कुछ वेट असाइन करने पर आधारित है.
करंट वैल्यू और हिस्टॉरिकल वैल्यू, दोनों ही बातें कंपनियों की रेटिंग तय करती हैं.
वैल्युएशन स्कोर
स्कोर ये पता लगाने में मदद करती है कि कोई स्टॉक कितना आकर्षक या महंगा है. ये क्वांटिटेटिव रेटिंग, स्टॉक के कंरट वैल्युएशन पैरामीटर के साथ-साथ ऐतिहासिक संदर्भ पर भी विचार करती है. वैल्युएशन स्कोर कैलकुलेशन के आधार इस तरह हैं:
- अर्निंग यील्ड: जितना ज़्यादा होगा, उतना बेहतर होगा
अर्निंग यील्ड या कमाई की उपज दिखाती है कि एक कंपनी अपने मौजूदा शेयर प्राइस पर प्रति शेयर कितनी कमाई (ताज़ा चार तिमाहियों का जोड़) करती है. इस प्रतिशत का इस्तेमाल तुलना लायक़ दूसरी कंपनियों के रिटर्न से तुलना करने के लिए किया जाता है. एक हाई रेशियो आपके पैसे की ज़्यादा वैल्यू की ओर इशारा करता है. - प्राइस टू अर्निंग: जितना कम होगा, उतना बेहतर होगा
हर निवेशक कंपनी के हरेक रुपये के लाभ के लिए जितना हो सके कम-से-कम क़ीमत चुकाना चाहता है. लेकिन मुनाफ़े के हर रुपये की क़ीमत बाज़ार में अलग-अलग होती है. प्राइस-टू-अर्निंग रेशियो इसी चीज़ को दिखाता है. ये किसी कंपनी की कमाई को लेकर बाज़ार की अपेक्षा को मापता है. - प्राइस टू बुक: जितना कम होगा, उतना बेहतर होगा
प्राइस-टू-अर्निंग रेशियो की तरह, प्राइस-टू-बुक रेशियो प्रति शेयर बुक वैल्यू (यानी, प्रति शेयर नेट वर्थ) को असाइन की गई वैल्यू बताता है. कम वैल्यू दिखाती है कि कंपनी अपनी नेट वर्थ के क़रीब क़ारोबार कर रही है. - फ़्री कैश फ़्लो यील्ड: जितना ज़्यादा होगा, उतना बेहतर होगा
फ़्री कैश फ़्लो ऐसा कैश है, जो एक कंपनी सभी कैपिटल एक्सपेंडिचर के बाद अपने ऑपरेशन से पैदा करती है. इस राशि का इस्तेमाल क़र्ज़ का भुगतान करने और/या शेयरधारकों को डिविडेंड या बायबैक के ज़रिए रिवॉर्ड करने के लिए किया जा सकता है. किसी कंपनी का वैल्युएशन कैसे किया जाता है, इसका आकलन करने के लिए फ़्री कैश फ़्लो यील्ड (यानी, मार्केट कैप के प्रतिशत के रूप में फ़्री कैश फ़्लो) एक काम का वैल्युएशन टूल है. हाई रेशियो दिखाता है कि इसका प्राइस आकर्षक है. - प्राइस/अर्निंग्स-टू-ग्रोथ (PEG): जितना कम होगा, उतना बेहतर होगा
PEG रेशियो प्राइस-टू-अर्निंग रेशियो को एक क़दम आगे ले जाता है और कंपनी का वैल्युएशन कैसे किया जाता है इसका अनुमान लगाने के लिए ऐतिहासिक पांच साल की अर्निंग ग्रोथ को शामिल करता है. रेशियो अगर एक से कम हो, तो आकर्षक माना जाता है. - डिविडेंड यील्ड: जितना ज़्यादा होगा, उतना बेहतर होगा
डिविडेंड यील्ड आपको बताती है कि कंपनी अपने शेयर प्राइस से कितने प्रतिशत डिविडेंड का भुगतान करती है. एक हाई रेशियो दिखाता है कि आप डिविडेंड के ज़रिए अपने निवेश का ज़्यादा हिस्सा वसूल करते हैं.
बैंक और NBFCs के लिए, इस तरह के पैरामीटर पर ग़ौर किया जाता है:
- प्राइस टू अर्निंग्स: जितना कम, उतना बेहतर
हर निवेशक चाहता है कि कंपनी के हरेक रुपये के प्रॉफ़िट के लिए जितना हो सके उतनी कम क़ीमत चुकाए. लेकिन मुनाफ़े के हर रुपये की क़ीमत बाज़ार में अलग-अलग होती है. प्राइस-टू-अर्निंग रेशियो इसी चीज़ को दिखाता है. ये किसी कंपनी की कमाई के बारे में बाज़ार की अपेक्षा को मापता है. - प्राइस टू बुक: जितना कम, उतना बेहतर
प्राइस-टू-बुक रेशियो हर शेयर की बुक वैल्यू (यानी, नेट वर्थ प्रति शेयर) को असाइन की गई वैल्यू मापता है. कम वैल्यू ये दिखाती है कि कंपनी अपने नेट वर्थ के क़रीब क़ारोबार कर रही है. बैंकों के मामले में, इस रेशियो को P/E रेशियो से ज़्यादा प्राथमिकता दी जाती है, क्योंकि ज़्यादा एसेट्स और देनदारियों का कैलकुलेश उनके मौजूदा वैल्यू पर किया जाता है. - PE टू SGR: जितना कम, उतना बेहतर
P/E से स्थायी ग्रोथ रेट रेशियो P/E रेशियो को एक क़दम आगे ले जाता है और कंपनी की वैल्युएशन कैसे की जाती है, इसका अंदाज़ा लगाने के लिए ऐतिहासिक पांच साल की टिकाऊ अर्निंग ग्रोथ रेट को शामिल करते हैं. एक कंपनी जो अपने P/E की तुलना में तेज़ गति से बढ़ रही है, उसका PE टू SGR रेशियो एक से कम हो जाता है और उसे आकर्षक माना जाता है. - डिविडेंड यील्ड: जितना ज़्यादा, उतना बेहतर
डिविडेंड यील्ड आपको बताती है कि कंपनी अपने शेयर प्राइस से कितने प्रतिशत डिविडेंड का भुगतान करती है. एक हाई रेशियो दिखाता करता है कि आप डिविडेंड के ज़रिए अपने निवेश का ज़्यादा हिस्सा वसूल करते हैं.
कुछ मापदंडों के लिए कंपनी की अपनी पांच मीडियन रेंज के संदर्भ में करंट वैल्यू और उनकी स्थिति, दोनों पर विचार किया जाता है.
ग्रोथ स्कोर
ग्रोथ स्कोर बिज़नस की ऐतिहासिक ग्रोथ के साथ-साथ उसके विस्तार की पूरी रेटिंग देने के लिए डिज़ाइन की गई है. इसका कैलकुलेशन नीचे दिए गए मापदंडों के आधार पर किया जाता है:
- ऑपरेटिंग रेवेन्यू: जितना ज़्यादा होगा, उतना बेहतर होगा.
रेवेन्यू वो है जो किसी बिज़नस को चलाता है. इसकी ग्रोथ को मापने से ये संकेत मिलता है कि किसी कंपनी ने पिछले कुछ साल में अपने ऑपरेशन के स्केल को कैसे बढ़ाया है. - ऑपरेटिंग प्रॉफ़िट: जितना ज़्यादा होगा, उतना बेहतर होगा.
ऑपरेशन प्रॉफ़िट किसी बिज़नस के कोर ऑपरेशन से पैदा हुआ लाभ है. ऑपरेटिंग प्रॉफ़िट में ग्रोथ के बिना रेवेन्यू बढ़ने से कंपनी की कोई वैल्यू नहीं बढ़ेगी. इस तरह, ऑपरेटिंग प्रॉफ़िट ग्रोथ पर नज़र रखना महत्वपूर्ण है. - टैक्स के बाद का प्रॉफ़िट: जितना ज़्यादा होगा, उतना बेहतर होगा.
टैक्स के बाद प्रॉफ़िट कंपनी के शेयरधारकों के कारण होने वाला लाभ है. मुनाफ़ा बढ़ना एक स्वस्थ और सफल बिज़नस का संकेत है. - ऑपरेशन से मिला कैश फ़्लो: जितना ज़्यादा होगा, उतना बेहतर होगा.
मैनेजमेंट की अकाउंटिंग की चालों का शिकार होने से बचने के लिए, आप बिज़नस के ऑपरेशन कैसे चला रहे हैं इसकी स्पष्ट तस्वीर दिखाने के लिए ऑपरेशन के कैश फ़्लो पर भरोसा कर सकते हैं. किसी कंपनी में ऑपरेशन से कैश फ़्लो का लगातार बढ़ना एक अच्छी विशेषता है. - पियोत्रोस्की F-स्कोर: जितना ज़्यादा होगा, उतना बेहतर होगा.
अमेरिका में एक अकाउंटिंग प्रोफ़ेसर की तैयार की गई, पियोत्रोस्की F-स्कोर कंपनियों को उनकी फ़ाइनेंशियल की ताक़त तय करने के लिए नौ फ़ाइनेंशियल पैरामीटर पर रेट करता है. स्कोर लगातार अच्छा प्रदर्शन करने वालों की तुलना में हाल ही में आकर्षक प्रदर्शन करने वालों को ज़्यादा पुरस्कृत करता है.
बैंक और NBFCs के लिए, इस तरह के पैरामीटर पर ग़ौर किया जाता है:
- नेट इंटरस्ट इनकम: जितना ज़्यादा, उतना बेहतर
नेट इंटरस्ट इनकम (NII) एक बैंक की अपनी उधार देने की गतिविधियों से कमाई इंटरस्ट इनकम और अपने डिपॉज़िटर्स को दिए जाने वाले ब्याज़ के बीच का अंतर है. NII का बढ़ना ये दिखाता है कि कोई कंपनी अपने ऑपरेशन को कैसे बढ़ा रही है. - ऑपरेटिंग प्रॉफ़िट बिफ़ोर प्रोविज़न्स: जितना ज़्यादा, उतना बेहतर
ऑपरेटिंग प्रॉफ़िट किसी बैंक के कोर ऑपरेशन से मिलने वाला मुनाफ़ा है. प्रोविज़न से पहले ऑपरेटिंग प्रॉफ़िट वो इनकम है जो बैंक भविष्य के ख़राब क़र्ज़ों के लिए अलग रखी गई रक़म को घटाने से पहले कमाता है. ऑपरेटिंग प्रॉफ़िट बढ़े बिना इंटरस्ट इनकम में वृद्धि से कंपनी के मूल्य में कोई वृद्धि नहीं होगी. इस प्रकार, इंटरस्ट इनकम में बढ़ोतरी के साथ-साथ परिचालन लाभ पर नज़र रखना महत्वपूर्ण है। - प्रॉफ़िट आफ़्टर टैक्स: जितना ज़्यादा, उतना बेहतर
टैक्स के बाद प्रॉफ़िट कंपनी के शेयरधारकों के कारण होने वाला लाभ है. मुनाफ़ा बढ़ना एक स्वस्थ और सफल बिज़नस का संकेत है. - अडवांस: जितने ज़्यादा, उतने बेहतर (चेतावनी के साथ)
अडवांस (या लोन अडवांस) वो राशि है जो क़र्ज़ देने वाले उधार देते हैं. अडवांस लॉन्ग-टर्म या शॉर्ट-टर्म दोनों अवधियों के लिए दिया जा सकता है. किसी बैंक की ग्रोथ के लिए उसके अडवांस बढ़ना ज़रूरी है. हालांकि, अडवांस में ग्रोथ प्रॉफ़िट की क़ीमत पर नहीं होनी चाहिए. अच्छे अंडर-राइटिंग स्टैंडर्ड को बनाए रखना अहम है. - बुक वैल्यू: जितनी ज़्यादा, उतनी बेहतर
किसी कंपनी का बुक वैल्यू बैलेंस शीट के शेयरधारक के इक्विटी सेक्शन में सभी लाइन आइटम का जोड़ है. बुक वैल्यू की कैलकुेशन किसी कंपनी के टोटल एसेट और देनदारियों की वैल्यू के बीच के अंतर के तौर पर भी की जा सकती है. जैसे-जैसे किसी कंपनी का मुनाफ़ा बढ़ता है, उसकी बुक वैल्यू में बढ़ोतरी होती है.
रेटिंग्स एब्सल्यूट रेंज पर आधारित हैं और इनमें मौजूदा प्रदर्शन और ग्रोथ में निरंतरता को ध्यान में रखा गया है. ग्रोथ के कैलकुलेशन के लिए हर एक पैरामीटर के मद्देनज़र प्रति शेयर डेटा पर विचार किया जाता है.
मोमेंटम स्कोर
मोमेंटम स्कोर किसी स्टॉक की क़ीमत में होने वाले उतार-चढ़ाव और पूरे निवेश परिदृश्य (लार्ज, मिड, और स्मॉल-कैप) की तुलना में उसकी सापेक्ष अस्थिरता दिखाता है. इसे इन पैमानों के आधार पर कैलकुलेट किया जाता है:
- मोमेंटम रेशियो: जितना ऊंचा हो, उतना बेहतर.
निवेशकों को क़ीमतें बढ़ना अच्छा लगता है लेकिन अंतर्निहित जोख़िम से बचने की प्रवृत्ति हमें अस्थिरता के मामले में सतर्क बनाती है. मोमेंटम रेशियो किसी स्टॉक की अस्थिरता के विरुद्ध उसकी क़ीमत में होने वाले उतार-चढ़ाव को मापता है. - मोमेंटम रेशियो स्कोर (MRS): जितना ऊंचा हो, उतना बेहतर.
प्रदर्शन तभी सार्थक होता है जब उसकी तुलना की जाए. ‘MRS’ किसी स्टॉक के प्रदर्शन को उसके निवेश परिदृश्य के उतार-चढ़ाव को ध्यान में रखते हुए उसकी स्थिति के आधार पर जांच करता है. - वेटेड एवरेज स्कोर: जितना ऊंचा हो, उतना बेहतर.
इसे चुनी हुई सीमा के भीतर अलग-अलग समय अवधियों के भार (वेट) का आकलन करके कैलकुलेट किया जाता है.
मोमेंटम स्कोर ऊपर दिए पैरामीटर की सापेक्ष रैंकिंग पर आधारित है.
किसे रेटिंग में शामिल नहीं किया जाता
इन कैटेगरी की कंपनियों को रेटिंग से बाहर रखा गया है:
- कंपनियां जिनमें पिछले एक महीने में कोई ट्रेड नहीं हुआ है
- कंपनियां जिनके लेटेस्ट फ़ाइनेंशियल्स मौजूद नहीं हैं
- कंपनियां जिनकी तीन साल की हिस्ट्री नहीं है
- कंपनियां जिनकी पिछले तीन साल के दौरान कम ट्रेडिंग की हिस्ट्री रही है.
- कंपनियां जिनकी पिछले तीन साल के किसी भी पीरियड में ज़ीरो सेल्स रही है.
- कंपनियां जिनकी ताज़ा बैलेंस शीट घाटे में रही या जिनकी नेटवर्थ नेगेटिव है.
- कंपनियां जो सभी लिस्टिड कंपनियों के टोटल मार्केट कैपिटलाइज़ेशन के निचले एक प्रतिशत का हिस्सा हैं.
5-स्टार कंपोज़िट रेटिंग
कंपोज़िट रेटिंग में सभी चारों रेटिंग एक ही जगह आ जाती हैं जिससे जल्दी समझने में मदद मिलती है. इसमें चारों फ़ैक्टर होते हैं - क्वालिटी, वैल्युएशन, ग्रोथ और मोमेंटम स्कोर. ये नीचे दिए वेट के साथ शामिल होते हैं.
- क्वालिटी स्कोर: 25%
- ग्रोथ स्कोर: 20%
- वैल्युएशन स्कोर: 35%
- मोमेंटम स्कोर: 20%
दिए गए वेट के साथ कंबाइन स्कोर के आधार पर कंपनियों को घटते हुए क्रम में जगह दी जाती है. रिज़ल्टिंग नंबर को इस तरह से रेट किया जाता है:
5 स्टार: टॉप 10%
4 स्टार: नेक्स्ट 22.5%
3 स्टार: मिडिल 35%
2 स्टार: नेक्स्ट 22.5%
1 स्टार: बॉटम 10%
डिस्क्लेमर: सभी स्टार रेटिंग कंपनी के ऐतिसहासिक डेटा के क्वांटिटेटिव फ़ाइनेंशियल डेटा पर आधारित हैं. इन रेटिंग्स को सिफ़ारिश या रेकमेंडेशन नहीं समझा जाना चाहिए.